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III
वामदेव के अग्नि-सूक्त
भूमिका
ऋग्वेदकी व्याख्या संभवतः सबसे कठिन और विवादास्पद प्रश्न है जिसके साथ आजके विद्वानोंको निपटना है । यह कठिनाई एवं विवाद वर्तमान समीक्षाकी उपज नहीं; यह अत्यन्त प्राचीन युगसे विभिन्न रूपोंमें विद्यमान रहा है । इस अनिश्चितताका कारण क्या है ? नि:सन्देह कुछ अंश में इसका कारण यह है कि वेद की भाषा इतने पुराने ढंगकी है कि इसके अनेक शब्द तभी लुप्त हो चुके थे जब प्राचीन भारतीय विद्वानोंने वेद-विषयक परम्परागत ज्ञानको व्यवस्थित करनेका यत्न किया और विशेषकर यह कि संस्कृतके पुराने शब्दोंके अनेकों विभिन्न अर्थ हो सकते हैं । परन्तु एक और कठिनाई एवं समस्या भी है जो अधिक महत्त्वपूर्ण है । वेदके सूक्त रूपकों और प्रतीकोंसे भरे पड़े है, --इसमें तनिक भी सन्देह नहीं हो सकता, --और प्रश्न यह है कि ये प्रतीक किस वस्तुको द्योतित करते हैं, इनका धार्मिक या अन्य अर्थ क्या है ? क्या ये केवल गाथात्मक रूपक हैं जिनके पीछे कोई गहरा अर्थ नहीं ? क्या ये पुरानी प्रकृति-पूजाके काव्यमय रूपक हैं जो पौराणिक, ज्यौतिषिक और प्रकृतिवादीय हैं या भौतिक दृग्विषयोंके एक ऐसे कार्यके प्रतीक हैं जिसे देवताओंका कार्य कहकर वर्णित किया जाता है ? अथवा इनका कोई अन्य अधिक गुप्त अर्थ है ? यदि यह प्रश्न किसी असंदिग्ध निश्चितताके साथ हल किया जा सके तो भाषाकी कठिनाई कोई बड़ी बाधा नहीं होगी; कुछ सूक्त और मन्त्र अस्पष्ट रह सकते हैं किन्तु प्राचीन सूक्तोंका सामान्य अभिप्राय, तात्पर्य और आशय स्पष्ट किया जा सकता है । परन्तु वेदकी अनूठी विशेषता यह है कि इनमेंसे कोई भी समाधान-कम-से-कम, जिस रूपमें अब तक इन्हें व्यवहारमें लाया गया है उस रूपमें, -स्थिर और सन्तोषजनक परिणाम नहीं देता । सूक्त अव्यवस्थित, बेतुके और असम्बद्ध ही रहते हैं, और विद्वानोंको इस निर्मूल कल्पनाकी शरण लेनी पड़ती है कि यह असम्बद्धता मूलग्रन्थका जन्मजात स्वभाव है और यह इसके केन्द्रीय अर्थके सम्बन्धमें उनके अज्ञानसे उत्पन्न ३४२ नहीं होती । परन्तु जब तक हम इस विचार-बिन्दुसे आगे नहीं जा सकते तब तक सन्देह और विवाद बने ही रहेंगे ।
कुछ वर्ष हुए मैंने एक लेखमाला1 लिखी थी जिसमें मैंने वेद के स्वरूप के अस्पष्ट होनेका कारण सुझाया था । मेरा सुझाव इस केन्द्रीय विचारपर अवलम्बित था कि ये सूक्त धार्मिक संस्कृतिकी एक ऐसी अवस्थामें लिखे गए थे जो यूनान तथा अन्य प्राचीन देशोंके एक ऐसे ही कालके अनुरूप थी । मेरा कथन यह नहीं है कि ये समकालीन थे या पूजापद्धति और विचारमें अभिन्न थे । किन्तु जिस काल या अवस्थामें ये लिखे गए थे उसमें प्रचलित धर्मका रूप द्विविध था, जनसाधारणके लिए, संसारी मनुष्योंके लिए तो इसका रूप बाह्य था और दीक्षितोंके लिए आन्तरिक, यह काल गुह्य विद्याओंका प्रारम्भिक काल था । वैदिक ऋषि गुह्यवेत्ता थे जो अपना अन्तर्ज्ञान दीक्षितोके लिए ही सुरक्षित रखते थे; जनसाधारणसे वे उसे कुछ ऐसे संकेतोंकी वर्णमालाके प्रयोगके द्वारा छुपाए रखते थे जो दीक्षाके बिना सहज-तया समझमें नहीं आते थे पर जब एक बार चिह्न पता लग जाता तो वे पूर्णतया स्पष्ट ओर सुव्यवस्थित लगते थे । ये प्रतीक यज्ञके विचार और रूपोंके चारों ओर केन्द्रित थे; क्योंकि यज्ञ प्रचलित पूजापद्धतिकी सार्वभौम और केन्द्रीय संस्था था । सूक्त इस यज्ञ-संस्था को केन्द्र बनाकर लिखे गए थे और जनसाधारण इन्हें प्रकृतिके देवों, इन्द्र, अग्नि, सूर्य-सविता, वरुण, मित्र और भग, अश्विनौ, ऋभु, मरुत्, रुद्र, विष्णु, सरस्वतीकी स्तुतिमें लिखे गए ऐसे यज्ञ-स्तोत्र समझते थे जिनका उद्देश्य यज्ञके द्वारा देवताओंको इस बातके लिए प्रेरित करना था कि वे अपने उपहार-गाय, घोड़े, सोना तथा चरवाहा-जातिके और प्रकारके धन, शत्रुओंपर विजय, यात्रामें सुरक्षा, पुत्र, नौकर-चाकर, ऐश्वर्य और प्रत्येक प्रकारका सांसारिक सौभाग्य हमें प्रदान करें । किन्तु आदिम और जड़वादीय प्रकृतिवादके इस पर्देके पीछे एक और गुप्त पूजा-पद्धति भी छुपी थी । जब एक बार हम वैदिक प्रतीकोंके अर्थमें पैठ जाते तो वह पद्धति स्वयं प्रकट हो जाती थी । यदि प्रतीकोंका अर्थ एक बार पकड़में आ जाए और ठीक-ठीक पढ़ लिया जाय तो संपूर्ण ऋग्वेद स्पष्ट, तर्कसंगत, सूक्ष्मताके साथ बनी हुई किन्तु फिर भी सीधी-सादी सुन्दर रचना बन जायगा । __________ 1. लेखमालासे यहाँ 'वेद-रहस्य (पूर्वार्द्ध)' के पहले तेईस अध्याय अभिप्रेत हैं जो पहले-पहल Arya (आर्य) में अगस्त 1914 से जुलाई 1916 तक धारावाहिक लेखमालाके रूपमें प्रकाशित हुए थे ।--अनुवादक ३४३
मेरे सिद्धान्तके अनुसार इन गुह्य परिभाषाओंमें बाह्य यज्ञ आत्मदान और देवताओंके साथ अन्त:सम्पर्कके आन्तरिक यज्ञको सूचित करता है । ये देवता बाहरी तौरपर भौतिक प्रकृतिकी शक्तियाँ हैं और आन्तरिक तौरपर चैत्य प्रकृतिकी । इस प्रकार अग्नि बाहरी तौरपर अग्निरूपी भौतिक तत्त्व है, पर आन्तरिक तौरपर वह भगवन्मुखी चैत्य ज्वाला किंवा शक्ति, संकल्प एवं तपस्का अधिष्ठातृदेव है । सूर्य बाह्यत: सौर प्रकाश है, अन्तरत: प्रकाशप्रद सत्योद्धासक ज्ञानका देवता है, सोम बाह्यत: चन्द्रमा और सोम-मधु या अमृतमय सोम-वनस्पति है, अन्तरत: आध्यात्मिक हर्षोल्लास, आनन्द का देवता है । इस आन्तरिक वैदिक उपासना-विधिका प्रधान चैत्य विचार सत्य, दिव्य नियम और बृहत् सत्ताका, सत्यम्, ऋतम्, बृहत्का विचार था । पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्युलोक भौतिक, प्राणिक, मानसिक सत्ताके प्रतीक थे, पर यह सत्य एक महत्तर द्युलोकमें, त्रिविध अनन्तताके उस आधारमें प्रतिष्ठित था जिसका वैदिक ऋचाओंमें वस्तुत: ही प्रकट रूपसे उल्लेख किया गया है । और अतएव इस सत्यसे एक आध्यात्मिक एवं अतिमानसिक प्रकाशकी अवस्था अभिप्रेत थी । पृथ्वी और अन्तरिक्षके परे स्वर् या सूर्यलोक तक पहुँचना अर्थात् इस प्रकाशके स्थान, देवोंके घर, सत्यके आधार और धाम तक पहुँचना प्राचीन पितरोंकी, पूर्वे पितर:, और वैदिक धर्मके प्रतिष्ठापक सात अगिरस् ऋषियोंकी उपलब्धि थी । सौर देवता, अनन्तताके पुत्र, आदित्य सत्यमें उत्पन्न हुए थे और सत्य ही उनका घर था । पर वे नीचेके स्तरोंमें अवतरित हुए और प्रत्येक स्तरमें उनके अपने उपयुक्त व्यापार थे, उनकी मानसिक, प्राणिक और भौतिक वैश्व गतियाँ थीं । वें मनुष्यके अन्दर सत्यके संरक्षक और संवर्धक थे और सत्यके द्वारा, ऋतस्य पन्था:, उसे आनन्द और अमृतत्वकी ओर ले जाते थे । मनुष्यके अन्दर उनका आह्वान करना और उन्हें बढ़ाना होता था, उनकी क्रियाको उसके अन्दर गठित करना, उन्हें उसके अन्दर लाना या उत्पन्न करना होता था, देववीति, विस्तारित करना होता था; देवताति, जिससे मनुष्य उनकी विश्वमयतामें उनके साथ एक हो जाय, वैश्वदेव्य ।
यज्ञका निरूपण एक साथ ही आत्मदान और पूजा, युद्ध और यात्राके रूपमें किया जाता था । यह एक यु द्धका केन्द्र था जिसमें एक पक्षमें तो होते थे देवता जिनकी सहायता आर्य लोग करते थे और विरोधी पक्षमें होते थे दानव या विनाशक, दस्यु, वृत्र, पणि, राक्षस जो आगे चलकर दैत्य और असुर कहलाने लगे, अर्थात् यह सत्य या प्रकाश की शक्तियों और असत्य, विभाजन एवं अन्धकारकी शक्तियोंके बीच यु द्धका केन्द्र था । यह ३४४ एक यात्रा थी इस कारण कि यज्ञ पृथ्वीसे द्युलोक-स्थित देवोंकी ओर यात्रा करता था, पर इस कारण भी कि यह उस मार्गको तैयार करता था जिसके द्वारा स्वयं मनुष्य सत्यके धामकी यात्रा करता था । यह यात्रा जिसका दस्यु, चोर, लुटेरे, विदारक (वृक) और वृत्न विरोध करते थे स्वयं एक युद्ध थी । इस यज्ञमें आहुति-प्रदान एक अन्तर्दान था । बाह्य यज्ञकी सभी आहुतियाँ, गाय और उसका दूध, अश्व और सोम सत्यके अधिपति देवोंके प्रति आन्तरिक शक्तियों और अनुभूतियोंके समर्पणके प्रतीक थे । देवताओंके उपहार अर्थात् बाह्य यज्ञके फल भी आन्तरिक दिव्य उपहारोंके प्रतीक थे, गौएं दिव्य प्रकाशका प्रतीक थीं जिसे सूर्यकी गौएं (या गोयूथ) कहकर संकेतित किया जाता था, घोड़ा था सामर्थ्य और शक्तिका प्रतीक, पुत्र था अन्त:स्थ देवता या दिव्य मानवका प्रतीक जो यज्ञके द्वारा जन्म लेता था, और इसी प्रकार फलोंकी सम्पूर्ण सूची ही प्रतीकात्मक थी । यह प्रतीकात्मक दोहरापन वैदिक शब्दोंके द्विविध अर्थके कारण सुगमतया साधित हो जाता था; उदाहरणार्थ, 'गो' शब्दके गाय और किरण दोनों अर्थ हैं; उषा और सूर्यकी गौएं, द्युलोककी boes Helio (बोस हेलियो) सूर्य-देवताकी, सत्य- दर्शनके अधिपतिकी किरणें हैं, जैसे यूनानी गाथाविज्ञानमे सूर्यका देवता अपोलो काव्य और भविष्यवाणी का प्रभु भी है । घृतका अर्थ है शुद्ध किया हुआ मक्खन ( घी), पर इसका अर्थ उज्जवल वस्तु भी है; सोमका अर्थ है सोम नामक पौधेका आसव, पर इसका अर्थ आनन्द, मधु, माधुर्य भी है । यह एक रूपकात्मक विचार है, रूपकके अन्य सब अंगोपांग इस केन्द्रीय विचारके सहायक हैं । यह प्रतीकात्मक या सांकेतिक पद्धति मुझे पूर्णतया सरल प्रतीत होती है, जो न तो अप्रासंगिक एवं दुरूह है और न प्राचीन मानव प्रजातियोंकी मानसिक स्थितिके लिए अस्वाभाविक ।
किन्तु इस सिद्धान्तके विरुद्ध कुछ अनुभव-निरपेक्ष आपत्तियाँ उठाई जा सकती हैं । पाश्चात्य विद्वानोंकी ओरसे व्यक्ति इसका विरोध करनेके लिए प्रेरित हो सकता है । यह आक्षेप किया जा सकता है कि इस सब गुह्यी-करणकी आवश्यकता ही नहीं, वेदमें इसका कोई भी चिह्न नहीं, हाँ यदि हम स्वयं आदिम गाथा-विज्ञानके अन्दर इसे पढ़ना पसन्द करें तो दूसरी बात है, धर्मके या वैदिक धर्मके इतिहाससे इसका समर्थन नहीं होता । यह संस्कृतिकी एक ऐसी सूक्ष्मता है जो प्राचीन एवं बर्बर मनके लिए असम्भव थी । इनमेंसे कोई भीं आक्षेप सचमुचमें ठहर नहीं सकता । मिश्र, यूनान तथा अन्य देशोंमें गुह्य रहस्य बहुत ही प्राचीन कालसे प्रतिष्ठित थे और वे ठीक इसी प्रतीकात्मक सिद्धान्तके आधार पर अग्रसर होते थे जिसके ३४५ अनुसार बाह्यगाथा, धार्मिक अनुष्ठान और पूजा-द्रव्य आन्तरिक जीवन या ज्ञानके रहस्योंके प्रतीक थे । अत: यह युक्ति नहीं दी जा सकती कि प्राचीन युगोंमें यह मानसिक स्थिति थी ही नहीं या संभव नहीं थी अथवा मिश्र और यूनानकी अपेक्षा उपनिषदोंके देश भारतमें कुछ अधिक असाध्य या असंभाव्य थी । प्राचीन धर्मका इतिहास यह अवश्य दिखाता है कि भौतिक प्रकृति-देवताओंका चैत्यशक्तियोंके प्रतिनिधियोंमें परिवर्तन हुआ, वरंच उनके भौतिक व्यापारोंमें चैत्य व्यापार आकर जुड़ गए; किन्तु कुछ दृष्टान्तोंमें भौतिक व्वापारोंने अपना स्थान कम बाह्य व्यापार ( या अर्थ) को दे दिया । मैं उदाहरण दे चुका हूँ कि बादके युगोंमें हेलिओस ( Helios) का स्थान अपोलोने ले लिया; ठीक इसी प्रकार वैदिक धर्ममें सूर्य नि:सन्देह आन्तरिक प्रकाशका देवता बन जाता है । प्रसिद्ध गायत्नी-मन्त्र और इसका गुह्य अर्थ इस बातको सिद्ध करनेके लिए विद्यमान हैं ही, और इसके साथ ही हैं उपनिषदोंके मन्त्र भीं जिनमें उपनिषदें वैदिक ऋचाओं या वैदिक प्रतीकोंकी साक्षीका निरन्तर आश्रय लेती एवं उनकी ओर हमारा ध्यान खींचती हैं । उन ऋचाओं एवं प्रतीकोंको वे मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक अर्थमें लेती हैं, उदाहरणके लिए देखिये ईश उपनिषद्के अन्तिम चार मन्त्र । हर्मिज और एथिना उच्चकोटिके गाथा-विज्ञानमें चैत्य व्यापारोंके द्योतक हैं, पर म्ल रूपमें वे प्राकृतिक देवता थे, एथिना बहुत संभवत: उषा-देवी थी । मैं दावेके साथ कहता हूँ कि वेंदमें उषा अपने आरम्भमें ही हमें इस परि-वर्तनको दर्शाती है, सुरा-देवता डायोनिसियस रहस्योंके साथ घनिष्ठतया संबद्ध था; उसे वेदोंके सुरा-देवता सोमके सदृश ही कार्य सौंपा गया था ।
परन्तु प्रश्न यह है कि क्या यह दर्शानेवाला कोई तथ्य है कि वेदमें सचमुच ही देवताओंके व्यापारोंकी ऐसी द्विविधत थी । अब, पहली बात तो यह है कि वेदोंकी तथाकथित शुद्धभौतिकवादी प्रकृति-पूजासे उपनिषदोंके असाधारण मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक ज्ञानकी ओर यह संक्रमण कैसे संपन्न हुआ, उन उपनिषदोंके जिनकी सूक्ष्मता और उदात्तताको प्राचीन युगमें कोई नहीं लांघ सका ? इसकी तीन संभव व्याख्याएं हो सकती हैं । पहली, यह आकस्मिक आध्यात्मिकता बाहरसे लाई गई हो सकती है; कुछ विद्वान् जल्दबाजीमें यह सुझाते हैं कि यह तथाकथित उच्च-आध्यात्मिक आर्येतर दाक्षिणात्य संस्कृतिसे लीं गई; पर यह एक पूर्वधारणा है, एक निराधार प्राक्कल्पना है जिसके लिए कोई भी प्रमाण नहीं प्रस्तुत किया गया । एक हवाई अनुमानकी भांति यह भी किसी आधार पर स्थित नहीं । दूसरो व्याख्या यह हो सकती है कि यह आध्यात्मिकता किसी ऐसे परिवर्तनके द्वारा, ३४६ जिसका निर्देश मैं कर चुका हूँ, अन्दरसे ही विकसित हुई, पर इसका विकास सबसे अर्वाचीन वैदिक सूक्तोंको छोड़कर अन्य सबकी रचनाके बाद ही हुआ होगा । किन्तु फिर भी इसका विकास वैदिक सूक्तोंके आधार पर ही साधित हुआ; उपनिषदें दावा करती हैं कि वे वैदिक ज्ञानसे, वेदान्तसे ही विकसित हुई हैं, वे बारंबार वेदमन्त्रोंकी साक्षी देकर उनकी ओर ध्यान खींचती हैं, वेदको ज्ञानका ग्रन्थ मानती हैं । जिन लोगोंने वैदान्तिक ज्ञान दिया उन्हें सर्वत्र वेदकी शिक्षा देनेवालेके रूपमें प्रस्तुत किया जाता है । तो फिर क्यों हमें आग्रहपूर्वक यह मानना चाहिए कि यह विकास अधिकतर वैदिक मन्त्रोंकी रचनाके पश्चात् ही हुआ ? क्योंकि तीसरी संभावना यह है कि सारी भूमि वैदिक रहस्यवादियोंने पहल ही सचेतन रूपसे तैयार कर रखी थी । मैं यह नहीं कहता कि आन्तरिक वैदिक ज्ञान ब्रह्मवादसे अभिन्न था । उसकी परिभाषाएँ भिन्न थी, उसका सारतत्त्व अत्यधिक विकसित किया गया, उसमेंसे बहुत कुछ लुप्त हो गया या त्याग दिया गया, उसमें बहुत कुछ बढ़ा दिया गया, पुराने विचारोंको छोड़ू दिया गया, नई व्याख्याएं की गई, प्रतीकात्मक तत्त्व न्यूनतम कर दिया गया और उसका स्थान स्पष्ट और खुले दार्शनिक पद-समुदायों एवं विचारोंने ले लिया । निश्चय ही, वैदिक मन्त्र ब्राह्मण- ग्रन्थोंके कालमें ही अस्पष्ट और दुर्बोध्य बन चुके थे । किन्तु फिर भी आधारका काम आरम्भसे सम्पन्न हुआ हों सकता है । निःसन्देह, अन्तमें यह एक तथ्यका प्रश्न है, किन्तु इस समय मेरा दावा केवल यही है कि मेरी स्थापनामें कोई स्वतःसिद्ध असम्भवता नहीं है; वरंच मेरे सुझावके पक्षमें बहुत काफी संभाव्यता या कमसे कम एक प्रबल संभावना विद्यमान है । मैं अपनी युक्ति इस प्रकार प्रस्तुत करूंगा । पीछेके सूक्तोंमें निःसन्देह ब्रह्मवादका आरम्भ विद्यमान है; इसका आरंभ कैसे हुआ, क्या प्राचीनतम मन्त्रोंमें इसका कोई मूल-स्रोत नहीं था ? यह निश्चित ही है कि वरुण और सरस्वती जैसे कुछ एक देवता भौतिक व्यापारकी तरह आध्यात्मिक व्यापार भी रखते थे । मैं इससे भी आगे बढ़कर यह कहता हूँ कि यह दोहरा कार्य वेदमें अन्य देवोंके संम्बन्धमें भी सर्वत्र पाया जा सकता है, उदाहरणार्थ, अग्नि और यहाँ तक कि मस्तोंके लिए भी । तब क्यों न इन लीकों पर खोजको निरन्तर जारी रखते हुए यह देखा जाय कि यह कहां तक जायगी ? कम-से-कम विचार करनेके लिए एक प्रत्यक्ष आधार तो है ही और शुरू करनेके लिए मैं इससे अधिक की मांग भी नहीं करता । सूक्तोंके असली मन्त्रोंकी परीक्षा ही यह दिखा सकती है कि यह खोज कहाँ तक उचित ठहरेगी या अत्यधिक महत्त्वके परिणाम उत्पन्न करेगी । ३४७ दूसरा सहजात आक्षेप कट्टरपंथी परम्पराकी ओरसे आता है । इस आक्षेपका अर्थ यह है कि सायणके प्रमाण और प्राचीन कोषकार यास्कके परे क्यों जाना चाहिए, उस सायणके जो वेदसे कम-से-कम दो-तीन हजार साल बादके युगका है । और फिर, वेदको प्रचलित रूपमें कर्मकांड, याज्ञिक क्रियाकलापका ग्रन्थ माना जाता है और केवल वेदान्तको ही ज्ञानकाण्ड, शानका ग्रन्थ । परले सिरेके रूढ़िवादी दृष्टिकोणसे यह आपत्तिकी जाती हैं कि तर्क, आलोचना-शक्ति एवं ऐतिहासिक युक्तिका इस प्रश्नसे कोई सम्बन्ध नही; वेद ऐसी परीक्षाओंसे परे हैं, अपने रूप और सारतत्त्वमें सनातन हैं, इनका अर्थ-निर्णय करते हुए इनकी व्याख्या परम्परागत प्रमाणके द्वारा ही करनी चाहिए । यह एक ऐंसी मनोवृत्ति है जिसके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं; मैं इस विषयके सत्यकी खोज कर रहा हूँ और परम्पराके विरुद्ध किसी सत्यकी खोज करनेके मेरे अधिकारको अस्वीकार करके मुझे खोज करनेसे रोका नहीं जा सकता । किन्तु यदि अधिक सन्तुलित रूपमें यह युक्ति दी जाय कि जब एक अविच्छिन्न और सुसंगत प्राचीन परम्परा विद्य-मान है तब उससे पीछे हटनेमें कोई औचित्य नहीं, तो हमारा स्पष्ट उत्तर यह हैं कि ऐसी कोई चीज है ही नहीं । सायण एक सतत अनिश्चितताके बीच विचरण करते हैं, विविध संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं, अपनी व्याख्याओं-में डांवाडोल होते रहते हैं । इतना हीं नहीं, बल्कि कर्मकाण्डीय एवं बाह्य अर्थके प्रति सामान्यतया निष्ठावान् रहते हुए भी कभी-कभी व्याख्याके नानाविध प्राचीन सम्प्रदायोंमें भेद दर्शाते तथा उन्हें उद्धृत करते हैं, जिनमेंसे एक आध्यात्मिक एवं दार्शनिक भी है, और उपनिषदोंके भावको वेदमें पाते हैं । यहां तक कि कभी-कभी वे इस आध्यात्मिक सम्प्रदायके निर्देशोंका अनुसरण करनेके लिए अपनेको बाध्य अनुभव करते हैं, यद्यपि ऐसा होता है बहुत विरले ही । और यदि हम प्राचीनतम कालतक पीछे जायं तो हम देखते हैं कि ब्राह्मण-ग्रन्थ वेदकी गुह्य याज्ञिक व्याख्या प्रस्तुत करते हैं, उपनिषदें ऋग्वेदको कर्मकाण्डका नहीं बल्कि आध्यात्मिक ज्ञानका ग्रन्थ समझती हैं । अत: ऋग्वेदका मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक तात्पर्य निश्चित करनेके प्रयत्न में ऐसी कोई भी बात नहीं जो विलक्षण रूपसे नयी या क्रान्तिकारी हो ।
अब रहा यह अन्तिम आक्षेप कि वेदकी व्याख्या अत्यन्त असाधारण कौशलके प्रयोगका क्षेत्र रही है । प्रत्येक प्रयत्न अतीव भिन्न परिणामोंपर पहुंचता रहा है और मेरा केवल एक और अधिक बड़ा कौशल है । यदि ऐसा है तो मैं अच्छे लोगोंकी संगतिमे हूँ । सायणकी व्याख्याएँ ऐसी कौशल- पूर्ण युक्तियोंसे भरी पड़ी है जिनमें अत्यधिक जोर-जबरदस्ती, खींचतान और ३४८ क्लिष्ट कल्पना है । वे प्रायः ही हलके भावसे व्याकरण, वाक्यरचना, अन्वय, संगतिका बलपूर्वक उल्लङधन करती हैं, इस विचारके बल पर कि ऋषि लोग इन चीजोंसे किसी प्रकार भी नियन्त्रित नहीं थे । यास्कका निरुक्त व्युत्पत्ति-सम्बन्धी तथा अन्य कुशल कल्पनाओंसे भरा पड़ा है जिनमेंसे कुछ अत्यन्त आश्चर्यजनक ढंगकी हैं । यूरोपके विद्वानोंने चतुरतापूर्वक अनुमानों तथा निगमनोंकी पद्धतिसे एक नया ही अनुवाद कर डाला है और आर्योंके आक्रमण तथा आर्यों और द्रवड़ोंके संघर्षका यथार्थ या काल्पनिक इतिहास तैयार कर दिया है, पर वेद-व्याख्याके दीर्घ इतिहासमें पहले कभी किसीका इस आक्रमण एवं संघर्षपर संदेह तक नहीं गया । स्वामी दयानन्दके भाष्य पर भी ऐसा ही दोष लगाया गया है। तथापि इस पद्धतिकी विश्व-व्यापकता इसे सच्चा सिद्ध नहीं कर देती और मुझे इस बहानेकी शरण लेनेकी कोई आवश्यकता भी नहीं क्योंकि यह कोई उचित युक्ति नहीं हैं । यदि मेरी या और किसीकी व्याख्या मूल मन्त्रोंमें खींचतान करके, स्वैर या काल्पनिक अनुवाद या विदेशसे आयातित अर्थके द्वारा प्राप्त होती है तो उसका कोई वास्तविक मूल्य नहीं हो सकता । वर्तमान ग्रन्थका, जो मुझे आशा है कि ग्रन्थमालाका पहला भाग होगा, उद्देश्य है मेरी पद्धतिको वस्तुत: क्रियात्मक रूपमें दिखाना और आधार तथा उचित हेतु दिखलाकर उपर्युक्त आक्षेपको दूर करना ।
मेरे मतमें वेदकी प्रामाणिक व्याख्याके लिए तीन प्रक्रियाएं आवश्यक हैं । सर्वप्रथम, मूलमन्त्रोंका सीधा-सादा शब्दश: अनुवाद होना चाहिए जो वास्तविक शब्दोंके द्वारा एकदम सुझाए गए सीधे-सादे और सरल अर्थ के साथ दृढ़तापूर्वक संबद्ध हो, भले ही उसका परिणाम कुछ भी क्यों न हो । फिर, इस परिणामको लेकर यह देखना होगा कि इसका यथार्थ अर्थ और तात्पर्य क्या है । वह अर्थ अपने आपमें संगत एवं सुसंबद्ध होना चाहिए, उसे यह दिखाना चाहिए कि प्रत्येक सूक्त अपने आपमें एक अखण्ड सूक्त है जो एक विचारसे दूसरे विचारकी ओर बढ्ता है, अपने-आपमें क्रमबद्ध है, जैसे कि मानव मनकी किसी भी साहित्यिक कृतिको क्रमबद्ध होना ही चाहिए जो पागलोंके द्वारा नहीं लिखी गई या केवल असंबद्ध प्रलापोंकी शृंखला ही नही है । यह कल्पना करना संभव नहीं कि इन ऋषियों ने जो सुयोग्य छन्दोवित् थे, महती शक्ति और गतिसे युक्त शैलीके धनी थे, विचारोंकी किसी ऐसी शृंखलाके बिना ही रचनाकी जो समस्त उपयुक्त साहित्यिक कृतिका लक्षण है । और यदि हम उन्हें ईश्वरके द्वारा अनुप्रेरित तथा ब्रह्म या सनातन भगवान्के प्रतिनिधि मानते हैं तो यह कल्पना करनेका कोई ३४९ आधार नहीं कि दिव्य प्रज्ञा अपनी वाणीमें मानव मनकी अपेक्षा अधिक असंबद्ध है, वरन् उसे अपनी समग्रतामें अधिक प्रकाशपूर्ण और तृप्तिकारक होना चाहिए । अन्तिम प्रक्रिया यह है कि यदि मूल ग्रन्थके किसी भागकी प्रतीकात्मक व्याख्या की जाय तो वह स्वयं वेदके संकेत और भाषासे ही सीधे और स्पष्ट रूपमें उद्भूत होनी चाहिए न कि उसके अन्दर बाहरसे लादी जानी चाहिए ।
इनमेंसे प्रत्येक बातपर कुछ शब्द कहना उपयोगी होगा । पहला नियम जिसका मैं अनुसरण करता हूँ यह है--ऋचाके उस अधिकसे अधिक सरल और सीधे अर्थको पानेका यत्न करना जो उसका खुला एवं प्रकट अर्थ हो, खींचतान न करना, तोड़ना-मरोड़ना नहीं और नाहीं जटिलता पैदा करना । वैदिक शैली अति संक्षिप्त पर स्वाभाविक है, इसमें ओजस्वी संक्षेप और कुछ अध्याहार पाए जाते हैं, किन्तु फिर भी वह तत्त्वतः सरल है और अपने लक्ष्य पर सीधे ढंगसे ही जाती है । जहां यह अस्पष्ट प्रतीत होती है वहां उसका कारण यह होता है कि हम शब्दोंका अर्थ नहीं जानते या विचारका मूल सूत्र हमारे हाथ नहीं आता । यदि दो एक स्थलों पर इसमें खींचतान की गई प्रतीत हो भी तथापि यह कोई कारण नहीं कि हम सम्पूर्ण वेदको ताक- पर रख दें अथवा इन स्थलोंमें भी अर्थ पर पहुंचनेके प्रयत्नमें इसमें और भी बुरी तरहसे खींचतान करें । जहाँ किसी शब्दका अर्थ निश्चित करना होता है, वहाँ कठिनाई या तो इसलिए आती है कि सच्चे अर्थका सूत्र हमारे पास नहीं होता या फिर इसलिए कि संस्कृतभाषामें उसके अनेक अर्थ हो सकते हैं । इनमेंसे दूसरी अवस्थामें मैं कुछ निश्चित सिद्धान्तोंका अनुसरण करता हूँ । प्रथम, यदि वह शब्द वेदके उन नियत शब्दोंमेंसे है जो उसके धार्मिक सिद्धान्तसे घनिष्ठतया संबद्ध हैं, तो सबसे पहले मुझे उसका एक अभिन्न अर्थ ढ़ूंढ़ना होगा जो जहाँ कहीं भी वह आए वहाँ ठीक लग सके । मुझे इस बातकी स्वाधीनता नहीं कि मैं शुरूसे ही अपनी खुशी या मनमौज या फिर तात्कालिक उपयुक्तताकी भावनाके अनुसार उसका अर्थ बदलता चला जाऊँ । यदि मैं गूढ़ ईसाई धर्म-विज्ञानकी किसी पुस्तककी व्याख्या करूं तो मुझे इस बातकी छूट नहीं कि उसमें जो 'ग्रेस' (grace) शब्द निरन्तर और पुनः-पुन: आता है उसका अर्थ स्वच्छन्दतापूर्वक करूं, कभी तो 'दिव्य अनुग्रह का अन्तःप्रवाह' यह अर्थ करूं और कभी 'तीन प्रकारकी ग्रेसमें-से एक', कभीं 'सौन्दर्यकी मोहकता', कभी 'परीक्षामें दिए गए कृपांक', कभी कभी 'एक लड़कीका नाम' । यदि एक स्थल पर वह स्पष्टतया यह या वह अर्थ रखता है और उसका दूसरा कोई अर्थ नहीं हो सकता, यदि उसका ३५०
साधारण अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है तब नि:संदेह दूसरी बात है; पर जहाँ सामान्य अर्थ प्रकरणमें ठीक बैठ जाय वहाँ मुझे इन दूसरे अर्थोंमेंसे कोई भी नहीं लगाना चाहिए । दूसरी बातोंमें मुझे बहुत अधिक स्वतन्त्रता प्राप्त हो सकती है, पर यह स्वतन्त्रता विकृत होकर निरंकुशतामें नहीं बदल जानी चाहिए । इस प्रकार हमें बताया जाता है कि, 'ऋतम्' शब्दके अर्थ हो सकते हैं, सत्य, यज्ञ, जल, गति तथा दूसरी बहुत-सी वस्तुएं । सायण स्वच्छन्दतापूर्वक और बिना किसी स्पष्ट नियम या कारणके इनमेंसे किसी भीं अर्थके अनुसार व्याख्या कर देते हैं और कभी-कभी तो वे हमारे सामने कोई विकल्प भी नहीं रखते; न केवल वे विभिन्न सूक्तोंमें उसकी भिन्न-भिन्न प्रकारसे व्याख्या. करते हैं, बल्कि एक ही सूक्तमें या यहाँ तक कि एक पंक्तिमें भी तीन विभिन्न अर्थोंमें व्याख्या करते हैं । मैं इसे सर्वथा अनुचित समझता हूँ । 'ऋतम्' वेदका एक स्थिर पारिभाषिक शब्द है और इसको मुझे सदा एक सुसंगत अर्थमें ही लेना चाहिए । यदि उस स्थिर परिभाषाके रूपमें मैं इसका अर्थ 'सत्य' समझता हूँ, तो मुझे सदा इसका यहीं अर्थ करना चाहिए, जब तक ऐसा न हो कि किसी विशेष स्थलमें इसका स्पष्ट अर्थ ''जल '', ''यज्ञ 'या '' गया हुआ मनुष्य'' ही हों तथा वहाँ इसका अर्थ सत्य' हो ही न सकता हों । 'ऋतस्य पन्था:' जैसी हृदयग्राही पदावलीका अनुवाद एक स्थल पर ''सत्यका मार्ग '' करना, दूसरे पर '' यज्ञका मार्ग '', एक अन्यपर "जलका मार्ग '' और फिर किसी और स्थल पर यह अर्थ करना कि '' उस व्यक्तिका मार्ग जो चला गया है'' --यह निरा स्वेच्छाचार है । और यदि हम ऐसी पद्धतिका अनुसरण करें तो वेदका हमारी व्यक्तिगत मौजके अर्थके सिवा कोई अर्थ नहीं हो सकता । फिर इसी प्रकार हमारे सामने 'देव' शब्द है, जिसका अर्थ नि:सन्देह सौमेंसे निन्यानवे स्थानोंमें 'प्रकाशमय सत्ताओं-मेंसे एक' अर्थात् 'देवता' होता है । यद्यपि यह 'ऋतम्' के समान अनिवार्य महत्त्वपूर्ण शब्द नहीं है तथापि जहाँ 'देवता' शब्द इसका एक अच्छा और पर्याप्त अर्थ देता हों वहाँ मुझे इसको पुरोहित या बुद्धिमान् मनुष्यके अर्थमें या किसी और अर्थमें नहीं लेना चाहिए, जब तक यह न दिखाया जा सके कि यह ऋषियोंकी वाणीमें नि:सन्देह एक और अर्थ रख सकता है । दूसरी ओर, 'अरि' जैसे शब्दका अर्थ कभी तो 'योद्धा', 'अपने पक्षका वीर पुरुष' होता है, कभीं शत्रु-पक्षका योद्धा, आक्रामक एवं शत्रु और कभी-कभी यह शब्द विशेषण होता है और 'अर्य' या यहाँ तक कि 'आर्य' शब्दके लगभग समान अर्थवाला प्रतीत होता है । पर ध्यान देनेकी बात है कि ये सभी अर्थ परस्पर अच्छी तरह संबद्ध हैं । दयानन्द व्याख्या करनेमें और भी ३५१ अधिक स्वतन्त्रताका आग्रह करते हैं जिससे कि वह प्रकरणके अनुकूल बैठ सके । वे कहते हैं सैन्धवका अर्थ है घोड़ा या खनिज लवण; जहाँ खानेका प्रसग हों वहाँ हमें इसका अर्थ नमक करना चाहिए, जहाँ सवारी करनेका प्रसंग हो वहाँ घोड़ा । यह बात तो सर्वथा स्पष्ट है; पर वेदमें सारा प्रश्न यह हैं कि प्रकरणका अभिप्राय क्या है, उसकी संबन्धकी कड़ीयाँ क्या हैं ? प्रकरणका क्या अर्थ होना चाहिए इस विषयमें अपनी व्यक्तिगत भावना के अनुसार यदि हम अर्थ करें तब तो हम चोर-रेतकी नींव पर इमारत बना रहे हैं । एकमात्र सुरक्षित नियम यह है कि उस अर्थको निर्धारित किया जाय जो वेदमें सामान्यतया प्रचलित हो और उससे भिन्न अर्थोंको केवल वहीं स्वीकार किया जाय जहाँ प्रकरणसे वे स्वतः स्पष्ट हों । जहाँ साधारण अर्थसे एक अच्छा भावार्थ निकलता हो वहाँ मुझे इसे स्वीकार करना चाहिए; यदि यह वह अर्थ न हो जो मैं चाहता हूँ कि इसका होना चाहिए या यह वेद-विषयक मेरे सिद्धान्तके अनुकूल न हो तो इस बातकी कुछ परवा नहीं । पर उस अर्थको कैसे निर्धारित किया जाय ? स्पष्टत: ही, अर्थका निर्धारण हम केवल इस प्रकार कर सकते हैं कि जिन स्थलोंमें कोई विशेष शब्द आता है उन सबकी पूरी-की-पूरी या शेष-बचो-हुई साक्षी उस अर्थके पक्षमें हो और फिर वह अर्थ वेदके सामान्य आशयके साथ मेल भी खाता हो । यदि मैं यह दिखा दूँ कि सभी संदर्भोंमें 'ऋत' शब्दका अर्थ 'सत्य' हों सकता है, बहुतसे स्थलोंमें--पर किसी भी तरह सभी स्थलों में नहीं--इसका अर्थ यज्ञ भी हो सकता है और केवल थोड़ेसे स्थलोंमें जल,- 'गति' तो शायद ही किसी स्थलमें संभव हों, और 'सत्य' यह अर्थ वेदके सामान्य तात्पर्यके साथ ठीक भी बैठता है, तो मैं समझूंगा कि इसे इस अर्थमें ही लेनेके लिए एक अकाट्य स्थापना मैंने कर दी हैं । अनेक शब्दोंके सम्बन्ध में ऐसा किया जा सकता है, दूसरोंके विषयमें हमें संभव अर्थोंका तुलन-फल निकालना होगा । तब बाकी रहे वे शब्द जिनका अर्थ, स्पष्ट कहें तो, हमें मालूम नहीं । यहाँ हमें व्युत्पत्ति-शास्त्रके सूत्रका प्रयोग करना होगा और तब हम जिस अर्थ या जिन संभव अर्थोंपर पहुंचें उन्हें उन स्थलोंमें जहाँ वह शब्द आया है, लगाकर परखें, जहाँ आवश्यक हो वहाँ केवल पृथक्-पृथक् ऋचाओंको ही नहीं वरन् आसपासके प्रकरणको तथा वेदके सामान्य भावको भी विचारमें लावें। कुछ ही स्थलोंमें कोई शब्द इतना विरला और अस्पष्ट होता है कि उसे केवल एक सर्वथा आनुमानिक अर्थ ही दिया जा सकता है ।
जब हमें मूल मन्त्रका अनुवाद प्राप्त हो जाय तब हमें यह देखना होगा ३५२ कि उसका तात्पर्य क्या है । यहाँ जो हमें करना होगा वह यह है--पहले हम स्वयं मन्त्रमें प्रकाशित विचारोंके परस्पर-सम्बन्धोंको देखें, उसके बाद उससे पहले और पिछले मन्त्रोंमें आये विचारोंके साथ तथा सूक्तके सामान्य आशयके साथ उसका कोई सम्बन्ध हो तो उसे भी देखें, तत्पश्चात् समानान्तर स्थलों, विचारों और सूक्तोंको और अन्तमें वेदके विचारोंकी योजनामें प्रकृत संपूर्ण सूक्तका स्थान भी देखें । इस प्रकार ऋ० IV.7 में हम एक पंक्ति देखते हैं-अग्ने कदा त आनुषग् भुवद् देवस्य चेतनम्, और इसका अनुवाद मैं यूँ करता हूँ, ''हे अग्ने, कब तुम देवका (दीप्तिमान् या ज्योतिर्मय एकमेव- का) (ज्ञान या चेतनाके प्रति) निरन्तर जागरण होगा ? '' परन्तु जो प्रश्न मुझे करना होगा वह यह है, ''क्या इसका अर्थ है वेदी पर स्थूल अग्निका सतत प्रज्वलन तथा भौतिक यज्ञका व्यवस्थित क्रम, अथवा क्या इसका अर्थ है मनुष्यमें दिव्य अग्निका सतत विकासोन्मुख ज्ञानके प्रति या ज्ञानकी व्यव-स्थित सचेतन क्रियाके प्रति जागरण ? '' विचार करने पर मैं देखता हूँ कि अगली, तीसरी ऋचामें अग्निका वर्णन उसे सत्यका (या यज्ञका ?) स्वामी, पूर्णज्ञानी, ऋतावानं विचेतसम्, कहकर किया गया है, चौथीमें उसे प्रत्येक प्राणी-के लिए चमकता हुआ अन्तर्दर्शन या ज्ञान या अन्तर्बोध कहकर, केतुं भृगवाणं विशे-विशे, छठीमें गुहामें निहित, पूर्ण ज्ञानी, उज्ज्वलवर्ण सत्ता कहकर, चित्रं गुहा-हितं सुवेदम् । सातवीं और आठवीमें उसका वर्णन यों किया गया है कि जब देवता सत्यके धाममें आनन्द लेते हैं तो वह यज्ञके लिए सत्यसे युक्त होकर आता है, वह दूत है, ऋतस्य धामन् रणयन्त देवा:... वेरध्वराय सदमिदृतावा, दूत ईयसे । यह सब अग्निको वेदी पर स्थूल ज्वालाके रूपमें हीं नहीं बल्कि दिव्य ज्ञानकी एक ऐसी ज्वालाके रूपमें लेनेके लिए प्रचुर प्रमाण है जो यज्ञका परिचालन तथा मनुष्य और देवताओंके बीच मध्यस्थका कार्य करती है । इस विषयके प्रमाणका तुलन-फल भी, निर्विवाद रूपमें न सही, इस पक्षमें है कि इसे (अग्निको) बाह्य प्रतीकोंके परदेके पीछे अन्तर्यज्ञका संकेत करनेवाला मानना चाहिए, क्योंकि यदि भौतिक फलोंके लिए भौतिक यज्ञका ही प्रश्न हो तो दिव्य ज्ञानपर इतना अधिक बल देना ही क्यों चाहिए ? मैं देखता हूँ कि वह पुरोहित, ऋषि, दूत, हवियोंका भोक्ता, द्रुत यात्री और योद्धा है । कैसे ये दोनों विचार जो वेदमें एकके बाद एक आते हैं और गुंथे हुए भी हैं, एक दूसरेके साथ संबद्ध है ? क्या यह भौतिक पवित्र ज्वाला है जो ये सब चीजें हैं या यह आन्तर पवित्र ज्वाला है ? इसे अस्थायी तौरपर अर्न्तज्वालाके रूपमें लेनेके लिए भी पर्याप्त प्रमाण हैं; पर पूर्ण निश्चयके लिए मैं इस एक ऋचा पर ही निर्भर नहीं कर सकत।. । मुझे ३५३ अन्य सूक्तोंमें इन विचारोंके विकासपर भी ध्यान देना होगा, जो सूक्त अग्नि-को अर्पित हैं या जिनमें उसका उल्लेख है उन सबका अध्ययन करना होगा और यह देखना होगा कि क्या ऐसे स्थल हैं जिनमें वह निःसन्देह अन्त- र्ज्वाला ही है और वे उसके संपूर्ण रूप पर क्या प्रकाश डालते हैं । केवल तभी मैं वैदिक अग्निके तात्पर्यका निश्चित रूपसे निर्णय करनेकी स्थितिमें हूंगा ।
यह उदाहरण दिखा देगा कि तीसरे प्रश्न, वैदिक प्रतीकोंकी व्याख्याके विषयमें मैं किस पद्धतिका अनुसरण करता हूँ । सूक्तोंमें अनेकानेक रूपक और प्रतीक हैं इसमें तो कोई सन्देह हो ही नहीं सकता । चौथे मण्डलके इस सातवें सूक्तमें आये उदाहरण यह दिखानेके लिए अपने आपमें पर्याप्त हैं कि वे कितना बड़ा भाग लेते हैं । ऋषिगण उनका जो अर्थ लगाते थे उसके संबन्धमें किसी तत्कालीन साक्षीके अभावमें हमें उनका अर्थ स्वयं वेदमें ही ढूंढना होगा । स्पष्टत: ही जहाँ हम नहीं जानते वहाँ हम प्राक्कल्पनाके बिना काम नहीं चला सकते, और मेरी प्राक्कल्पना यह है कि बाह्य भौतिक रूप आन्तर आध्यात्मिक अर्थका एक महत्त्वपूर्ण प्रतीक है । परन्तु इस या किसी भी प्राक्कल्पनाका कोई वास्तविक मूल्य नहीं हो सकता यदि वह बाहर-से लायी जाय, यदि वह स्वयं वेदके शब्दों एवं संकेतोंसे ही न सुझाई जाय । ब्राह्यणग्रन्थ कौशलपूर्ण व्याख्याओंसे अतीव परिपूर्ण है; वे मूल पाठके अन्दर यों ही अटकलपच्चू बहुत ही अधिक, बहुत ही अधिक अर्थोंको पढ़ते चले जाते हैं । उपनिषदें अधिक अच्छा प्रकाश देती हैं और हम अधिक अर्वाचीन ग्रन्थसे तथा यहाँ तक कि सायण और यास्कसे भी संकेत पा सकते हैं; किन्तु साथ ही इस अतिशय प्राचीन धर्मग्रन्थमें परवर्ती मनके विचारोंको अक्षरश: पढ़ना संकटपूर्ण भी होगा । वेदकी व्याख्या करनेके लिए हमें वेदसे ही आरम्भ करना और वेद पर ही निर्भर करना होगा । सबसे पहले हमें यह देखना होगा कि क्या वहाँ कोई सीधे-सादे और स्पष्ट मनोवैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक विचार है, यदि हैं तो वे क्या हैं और वे हमें क्या सूत्र प्रदान करते हैं, दूसरे, क्या भौतिक प्रतीकोंके मनोवैज्ञानिक अर्थोंके कोई संकेत वहाँ हैं और बाह्म भौतिक पक्ष आन्तर मनोवैज्ञानिक पक्षके साथ कैसे सम्बद्ध है । उदाहरणार्थ, ज्वालारूप अग्निको द्रष्टा और ज्ञाता क्यों कहा गया है ? क्यों नदियोंको ज्ञानसे युक्त जल कहा गया है ? क्यों उन्हें मन तक आरोहण करती या उस तक पहुँचती कहा गया है ? और इसी प्रकारके अन्य अनेकों प्रश्न है । इनका उत्तर भी फिर स्वयं वैदिक सूक्तोंके सूक्ष्म तुलनात्मक अध्ययनके द्वारा पाना होगा । इस ग्रन्यमें मैं अर्थके स्वाभाविक विकासके द्वारा अग्रसर होता हूँ । मैं प्रत्येक सूक्तको लेता हूँ, उसके प्रथम अर्थपर ३५४ पहुँचता हूँ, मैं देखता हूँ कि क्या वहाँ कोई मनोवैज्ञानिक संकेत हैं और यदि हैं तो उनके भावका बल क्या है तथा वे आपसमें किस प्रकार गुंथे हुए हैं और आसपासके अन्य विचारोंके साथ उनका क्या संबन्ध है । मैं इस प्रकार सूक्तसे सूक्तकी ओर बढ्ता हूँ, उन्हें उनके अभिन्न या सदृश विचारों, रूपकों, वर्णन-शैलियोके द्वारा एक दूसरेके साथ जोड़ता चलता हूँ । इस रीतिसे वेदकी स्पष्ट और संबद्ध व्याख्यापर पहुँचना संभव हो सकता है ।
इस पद्धतिमें यह माना गया है कि ऋग्वेदके सूक्त एक अखण्ड कृति हैं जो विभिन्न ऋषियोंके द्वारा रची गई है, रची गई है एक सारतः अभिन्न एवं सदा समान ज्ञानके और रूपकों तथा प्रतीकोंकी एक ही प्रणालीके आधारपर । यह, मैं समझता हूँ, वेदके उपरितलपर भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है । इसका एकमात्र प्रत्यक्ष अपवाद हैं कुछ विशेष सूक्त जो दसवें मण्डलमें हैं और परवर्ती विकाससे संबद्ध प्रतीत होते हैं, उनमेंसे प्रायः कुछ विशुद्ध रूपसे कर्मकाण्डीय हैं और अन्य कुछ एक प्रतीककी दृष्टिसे मूल ऋक्समूहकी अपेक्षा अधिक जटिल एवं विकसित हैं, कुछ और सूक्त दार्शनिक विचारोंको कमसे कम प्रतीक की सहायतासे स्पष्ट रूपमें घोषित करते हैं,-वे प्रथम वाणियां हैं जो उपनिषदोंके आगमनकी घोषणा करती हैं । कुछ सूक्त अतीव पुरातन ढंगके हैं, अन्य अधिक स्पष्ट और अपेक्षाकृत आधुनिक ढंगके । पर अधिकांशमें हम सर्वत्र एक ही सारतत्वको पाते हैं, समान रूपकों, विचारों, स्थायी पारिभाषिक शब्दों, समान पदावलियो और अभिव्यञ्जनाओंको देखते हैं । अन्यथा समस्या का समाधान नहीं हों सकेगा; जैसी कि वस्तुस्थिति है, वेद स्वयं वेदकी कुंजी प्रदान करता है ।
आरम्भके लिए मैंने जो सूक्त चुने हैं वे वामदेवके पन्द्रह अग्नि-सूक्त हैं । मैं उन्हें उस क्रमसे लेता हूँ जो मेरे अनुकूल पड़ता है, क्योंकि आरम्भके कुछ सूक्त प्रतीकसे अत्यधिक परिपूर्ण हैं और अतएव हमारे लिए अस्पष्ट और गहन हैं । सरलसे कठिन की ओर बढ़ना अधिक अच्छा है, क्योंकि इस प्रकार ही हम उस प्रारम्भिक सूत्रको अधिक अच्छी तरहसे पायेंगे जो हमें प्राचीनतर सूक्तोंकी अस्पष्टताको पार करनेमें सहायता पहुँचा सकता है ।
अग्नि, अग्निका अधिपति देव, भौतिक रूपमें यज्ञिय ज्वालाका देवता है, अरणियों, पौधों और जलोंमें पाया जानेवाला अग्नि है, विद्युत् है, सूर्यकी अग्नि है, ताप और प्रकाश, तपस् और तेजस्-रूपी आग्नेय तत्त्व है, वह चाहे कहीं भी प्राप्त हो । प्रश्न यह है कि क्या वह चैत्यलोकमें वही ३५५ तत्व भी है । यदि हां तो वह वही मनोवैज्ञानिक तत्त्व होना चाहिए जिसे पीछेके परिभाषा-शास्त्र्मे तपस् कहा गया है । वैदिक अग्निके दो विशेष गुण हैं, ज्ञान और देदीप्यमान शक्ति, प्रकाश और आग्नेय शक्ति । इससे यह सूचित होता है कि वह विश्वव्यापी देवाधिदेवकी शक्ति है, ज्ञानसे अनुप्राणित सचेतन शक्ति या संकल्प है--यही है तपस्का स्वरूप, -जो विश्वको व्यापे है और इसके सब क्रिया-व्यापारोंके पीछे स्थित है । अतएव अग्नि अपने व्यापारोंके चैत्य और आध्यात्मिक अर्थमें उस संकल्पकी अग्नि ही होगा जो अपने अन्तर्निहित और सहजात ज्ञानके कार्य करता है । वह द्रष्टा, कवि:, है, विचारका परम प्रेरक, प्रथमो मनोता, और वाणी एवं ईश्वरीय शब्दका भी प्रेरक है, उपवक्ता जनानाम्, हृदयस्थ शक्ति है जो कार्य करती है, ह्र्दिस्पृशं क्रतुम्, क्रिया और गतिका प्रेरक है, यज्ञ-कार्यमें मनुष्य का दिव्य मार्गदर्शक है । वह यज्ञका पुरोहित है, होता ( होतृ) है जो देवोंको पुकारता और ले आता है और उन्हें हवि देता है, वह ऋत्विक् है जो ठीक विधि-व्यवस्थाके साथ त था ठीक ऋतुमें यश करता है, वह पोता ( पोतृ ) नामका पुरोहित है जो पवित्र करता है, वह पुरोहित है जो यजमानके प्रतिनिधिके रूपमें आगे स्थापित होता है, वह यज्ञका परिचालक, अध्वर्यु, है; वह इन सब पवित्र आधिकारोंको अपनेमें संयुक्त किए है । यह प्रत्यक्ष ही है कि ये सब व्यापार मनुष्यमें अवस्थित उस दिव्य संकल्प या चेतन शक्तिसे सम्बन्ध रखते हैं जो अन्तर्यज्ञमें जाग उठती है । इस अग्निने सब लोकोंको रचा है, यह सर्जक शक्ति, जातवेदस् अग्नि, सब जन्मों अर्थात् जात ( उत्पन्न) पदार्थोंको, उस सबको, जो इन लोकोंमें है, जानता है । वह एक दूत है जो पृथ्वीको जानता है, द्युलोकक वकट ढलानपर, आरोधनं दिव:, चढ़ना जानता है, सत्यके धामका मार्ग जानता है; वह मनुष्य और ईश्वरके बीच मध्यथता करता है । ये चीजें भौतिक आगके देवतापर कठिनाईसे ही लागू होती है; पर यदि हम अग्नि-देवताके दिव्य स्वरूप और व्यापारोंपर अधिक विशालतासे दृष्टिपात करें तो ये उसके लिए आश्चर्यजनक रूपमे उपयुक्त हैं । वह पृथ्वीका देवता अर्थात पार्थिव सत्ता की शक्ति है, अवम:, पर वह कामनाके अन्दर प्राणिक इच्छा-शक्ति प्रतीत होता है, जो अपने घूमके द्वारा भक्षण करता और जलाता है, और फिर वह मानसिक शक्ति भी है । मनुष्य उसे तारोंसे युक्त द्युलोकके समान देखते हैं, द्यामिव स्तृभ :, द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथ्वी उसके अंश है । फिर वह 'स्वर्' का देवता भी है, सौर देवताओंमें से एक वह अपनेको सूर्यके रूपमें अभिव्यक्त करता है, बहु सत्यमें उत्पन्न हुआ ( ऋतजात) है; सत्य का स्वामी है, सत्य और अमरत्व का ३५६ रक्षक है, चमकीली गायोंको प्राप्त करने और उनकी रक्षा करनेवाला है, नित्य यौवन (सदायुवा) है और इन गुह्य पशुओंके यौवनको फिरसे नया करता है । वह अनन्तके अन्दर तीन रूपोमें फैला हुआ है । ये सब कार्य- व्यापार भौतिक अग्निके देवताके (विषयमें) नहीं कहे जा सकते; पर ये सब मनुष्य और विश्वमें विद्यमान चेतन दिव्य संकल्पके उपयुक्त गुण है । वह युद्धका अश्व है एवं अति वेगशाली अश्व है, और फिर वह श्वेत अश्व भी प्रदान करता है; वह पुत्र है और मनुष्यके लिए पुत्रको उत्पन्न करता है । वह योद्धा है और मनुष्यके लिए उसके युद्धके वीरोंको लाता है । वह दस्यु और राक्षसको अपनी ज्वालासे विनष्ट कर देता है; वह वृत्रका वध करनेवाला है । क्या यहाँ हमें केवल निष्ठुर एवं अनम्य द्रविड़ोंके या यज्ञका विरोध करनेवाले राक्षसोंके वधकर्ताको ही देखना है ? वह सैकड़ों प्रकारसे उत्पन्न होता है; पौधोंसे, अरणिसे, जलोंसे । उसकी जनक हैं दो अरणियां, किन्तु फिर उसके जनक द्यौ और पृथ्वी भी हैं, और यह (अरणि) एक ऐसा शब्द है जो अपने अन्दर दोनों अर्थोंको मिलाता प्रतीत होता है । तो क्या दो अरणियां द्यौ और पृथ्वीके प्रतीक नहीं हैं; इस बातके प्रतीक नहीं हैं कि अग्नि मर्त्योके लिए भौतिक सत्ता (पृथिवी) पर दिव्यतर मानसिक सत्ता (द्यौ) की क्रियासे उत्पन्न होता है । दस बहिनें उसकी माताएँ हैं--टीकाकार कहता है कि ये दस अंगुलियाँ हैं; हां, पर वेद इनका वर्णन यों करता है कि ये दस विचार या विचार- शक्तियाँ, दश धियः, हैं । सात नदियां, द्युलोककी शक्तिशाली नदियां, ज्ञानसे सपन्न जलधाराएँ, स्वर्की जलधाराएँ भी उसकी माताएँ हैं । इस प्रतीकात्मक वर्णनका तात्पर्य क्या है, क्या हम वस्तुत: इसकी यों व्याख्या कर सकते हैं कि यह केवल और एकमात्र प्राकृतिक दृग्विषयोंका, अग्निरूपी भौतिक तत्त्वका या उसके क्तर्योंका रूपकात्मक वर्णन है ? यदि इस बातको तुच्छ-से-तुच्छ रूप एवं शब्दोंमें रखा जाय तो यह कह सकते हैं कि कमसे कम यहाँ तो अग्निके एक अधिक गंभीर मनोवैज्ञानिक व्यापारकी प्रबल संभावना है । ये हैं हल करने योग्य मुख्य बातें । तो अब हम यह देखें कि अग्निका बाह्य स्वरूप ऋचाओंमें किस प्रकार विकसित होता है; अपने मनोंको खुले रखते हुए हम इस बातकी परीक्षा करें कि अग्निके विषयमें यह परिकल्पना कि वह वैदिक रहस्योंके अन्तर्गत देवताओंमेंसे एक है, टिक सकती है या नहीं । और इसका अर्थ यह है कि क्या वेद कर्मकाण्डीय सूक्तोंकी अर्द्धबर्बर पुस्तक है, आदिम प्रकृति-पूजाकी पुस्तक है या ऋषियों और गुह्यवेत्ताओंका धर्मग्रन्थ । ३५७ इस परीक्षाके लिए हम ऋग्वेदके चौथे मण्डलका 7वाँ सूक्त लेते हैं ।
छन्द : - -जगती, 2 - 6 अनुष्टुप्, 7 -11 त्रष्टुप् :
अयमिह प्रथमो धायि धातृभि होता यजिष्ठो अध्वरेष्वीडच : । यमप्नवानो भृगवो विरुरुचुर्वनेषु चित्रं विभ्वं विशेविशे ।।१।।
आलोचनात्मक टिप्पणियां
धातृभि: --सायण 'धातृ' शब्दकी यों व्याख्या करते हैं, वह जो यज्ञके लिए कार्य करता है, अतएव पुरोहित, किन्तु अधिक स्वाभाविक रूपमें, 'धातार: ' का अर्थ यहाँ देवता, वस्तुओंके स्रष्टा और विधाता होगा, यद्यपि इसे 'यज्ञिय कार्य की व्यवस्था करनेवाल'के अर्थमें लेना भी संभव है । 'धायि धातृभि: ' इन शब्दोंको एक साथ पास-पास रखना कदाचित् सर्वथा अर्थहीन नहीं हो सकता । देवता वे हैं जो सृष्टिके क्रमको स्थापित या व्यवस्थित करते हैं, प्रत्येक पदार्थको उसके अपने स्थान पर, उसके अपने नियम तथा कार्य-व्यापारके अनुसार स्थापित या व्यवस्थित करते हैं । उन्होंने अग्निको यहाँ, इह, स्थापित किया है । 'यहाँ' का अर्थ हो सकता है--यज्ञमें, पर अधिक व्यापक रूपमें इसका अर्थ होगा -यहाँ पृ थ्वीपर ।
होता-- 'होता' शब्दको सायण कभी-कभी '' देवोंका आह्वान करनेवाला'' इस अर्थमें लेते हैं और कभी ''होम करनेवाला या अग्निमें आहुति देनेवाला'' के अर्थमें । वास्तवमें इसमें दोनों ही अर्थ हैं । अग्नि 'होता' के रूपमें देवताओंको मत्न्त्रके द्वारा यज्ञमें बुलाता है और उनके आनेपर उन्हें आहुति देता है । अध्वरेषु -- 'अध्वर' शब्दकी व्याख्या निरुक्तमें यह की गई है कि इसका शाब्दिक अर्थ है-अहिंस्र:, ''अहिंसक ( हिंसा न करनेवाला)'', अ+ ध्वर ( ' ध्वृ हिंसायां ' धातुसे), और इस प्रकार इसका अर्थ हुआ अहिंसित यज्ञ, और इसलिए केवल 'यज्ञ' । निश्चय ही, यह यज्ञकी विशेषता बतानेवाले विशेषण- के रूपमें प्रयुक्त होता है, अध्वरो यज्ञ: । अत: इसे किसी ऐसे गुणका वाचक अवश्य होना चाहिए जो यज्ञमें इतने स्वाभाविक रूपसे विद्यमान हो कि वह अकेला अपने-आपमें उस- 'यज्ञ' -अर्थको प्रकट करनेमें समर्थ हो । पर ''अहिंसक ( अध्वर)'' शब्द अकेला अपने-आपमें यज्ञका वाचक कैसे बन सकता है ? मेरा सुझाव यह है कि जैसे 'असुर' में 'अ' को निषे धार्थक मानना भूल है और यह ( अस्से नहीं) 'असु क्षेपणे ( असु फेंकना)' इस धातु से बना है और इसका अर्थ है प्रबल, बलशाली, शक्तिमान्, उसी प्रकार 'अध्वर ' मार्ग और यात्राके वाचक 'अध्वन्' शब्दसे बना है । इसका अभिप्राय है यात्रारूपी यज्ञ, ३५८ एक ऐसा यश जो पृथ्वीसे द्युलोककी ओर यात्रा करता है और इस यात्रामें अग्नि उसे देवोंके मार्गसे ले चलता है । यदि हम 'अध्वर' शब्दको 'ध्वृ' धातुसे ही बनायें तो यह अधिक अच्छा होगा कि हम 'ध्वृ'1का साधारण अर्थ लेकर अध्वरका अर्थ करें अकुटिल, सीधा-सरlल और तब भी इसका अर्थ होगा यज्ञ जो ऋजु मार्गके द्वारा सीधे, बिना विचलित हुए, देवोंकी ओर जाता है, पन्था: अनृक्षर:, ऋजुना पथा (ऋ० 1.41-5), अनृक्षरा ऋजव: सन्तु पन्था: (ऋ० 10.85.23) ।
ईडच:--सायणने इसका अर्थ किया है : ऋत्विजनेके द्वारा ''जिसकी प्रशंसा या स्तुति की जाती है'' । किन्तु तब इसका अर्थ होना चाहिए ''स्तुति- के योग्य'' । आरम्भमें ईळ्, ईड्का अर्थ रहा होगा गति करना, पास जाना; पीछे इसका अर्थ हो गया प्रार्थना करना, याचना या कामना करना, याचामहे । मैं इसे ''काम्य'' या ''उपास्य''के अर्थमें लेता हूँ ।
वनेषु--वेदमें वनका अर्थ होता है वृक्ष, जंगल, पर साथ ही लट्ठ और इमारती लकड़ी भी । चित्रम्-कभी सायण 'चित्रम्'का अर्थ करते हैं, पूज्ये, चायनीयम् पूज्यम्, और कभी विचित्र, नानाविध् या अद्धु त । यहां उन्होंने अर्थ किया है ''विविध रूपसे सुन्दर'' । मैं इसे वेदके सभी सन्दर्भोंमें, जैसे कि 'इन्द्र चित्रभानो'में, 'नानाविध प्रकाश या सौन्दर्य'के इस अन्तिम अर्थमें ही लेता हूँ । मैं ऐसा कोई भी कारण नहीं देख पाता कि कहीं भी इसे पूजनीयके अर्थमें लिया जाए ।
विभ्वम्--सायण:--प्रभु, स्वामी । परन्तु ऋग्वेदमें 'विभु'का अर्थ निश्चय ही यह है : ''व्यापक रूपसे होनेवाला'' या ''सत्तामें व्यापक'' या ''व्यापक, प्रचुर, समृद्ध'' । मुझे ऐसा कोई स्थल नहीं मिला जहां इसका अर्थ आवश्यक रूपसे 'प्रभु' ही होना चाहिए । 'प्रभु' तो इसका एक ऐसा अर्थ है जो आगे चलकर अभिजात साहित्यमें हो गया । 'विभ्व'का अर्थ अवश्यमेव वही होना चाहिए जो विभुका है ।
अनुवाद :
''देखो, यहाँ पर विधाताने स्थापित कर दिया है होता को ( आहुतिके पुरोहितको), उस 'होता' को जो परम है, यज्ञ करनेमें सर्वाधिक शक्तिशाली ___________ 1. पाणिनीय धातुपाठमें 'ध्वृ हूर्च्छने' ऐसा पाठ है । ' हूर्च्छुन्का अर्थ है कौटिल्य, कुटिलता, यद्यपि इस धातुका प्रयोग हिंसाके अर्थमें भी देखनेमें आता. है । -अनुवादक ३५९ है, यात्रा-यज्ञोमें उपास्य है, जिसे अप्नवान और भृगुओंने प्रत्येक मानव प्राणी-के लिए वनोमें सर्वव्यापक, चित्र-विचित्र, समृद्धियुक्त अग्निके रूपमें चमकाया ।''
यह पहली ऋचा है; इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसका तात्पर्य असंदिग्ध रूपसे मनोवैज्ञानिक हो । बाह्य अर्थमें यह यज्ञके पुरोहितके रूपमे अग्निके गुणोंका वणेन है । उसका निर्देश उसके यज्ञिय अग्निवाले रूपमें किया गया है जिसे पुरोहित प्रदीप्त करते हैं, यज्ञमें उसके अपने स्थान पर स्थापित करते हैं या वहाँ उसका आधान करते हैं । यह निर्देश इस स्पष्ट कथनके तुल्य है कि यह पावन ज्वाला यज्ञके लिए एक महान् शक्ति है, देवोंमें प्रधान देव है जिसकी स्तुति या उपासना करना आवश्यक है, सबसे पहले अप्नवान और अन्य भृगुओंने ही अग्निके (यज्ञिय) उपयोगका आविष्कार किया और सब लोंगोंके द्वारा उसका उपयोग कराया । यहाँ वनकी अग्निका वर्णन अनुपयुक्त प्रतीत होता है जब तक कि ड्सका यह अभिप्राय न हो कि अग्नि-को वनकी आगके रूपमें विस्तृत और सुन्दर रूपसे जलते देखकर उन्हें यह विचार आया कि उन्होंने अग्निको शाखाओंके परस्पर रगड़नेसे उत्पन्न होते देखकर उसका आविष्कार किया या कि सबसे पहले उन्होंने वनकी अग्निके रूपमें ही इसे प्रज्वलित किया । नहीं तो यह एक आलंकारिक एवं निरर्थक वर्णनमात्र है ।
किन्तु यदि हम क्षणभरके लिए यह मान लें कि इस रूपकके पीछे अग्नि-का संकेत अंतर्यज्ञके होताके रूपमें किया गया है, तो यह देखने योग्य होगा कि इन रूपकोंका अर्थ क्या है । प्रारम्भके शब्द हमें यह बताते हैं कि सचेतन संकल्पकी यह ज्वाला, हमारे अन्दर स्थित यह महान् वस्तु, अयम् इह, यहाँ मनुष्यमें देवताओके द्वारा, विश्वव्यवस्थाके विधाताओंके द्वारा स्थापित की गई है, एक ऐसी शक्ति बननेके लिए स्थापित की गई है जिसके द्वारा मनुष्य अभीप्सा करता है और अन्य दिव्य शक्तियोंको अपनी सत्ताके अन्दर पुकारता है और अपने ज्ञान, संकल्प एवं आनन्दको तथा अपने अन्तर्जीवनके समस्त ऐश्वर्यको एक-एक यज्ञ-कार्यके रूपमें सत्यके अधिपतियोंके प्रति अर्पित करता है । तो ये प्रथम शब्द दीक्षितके लिए यही अर्थ रखते हैं कि ये वैदिक रहस्योंका आधारभूत विचार, यज्ञका अर्थ तथा मनुष्यमें स्थित भग-वत्संकल्प, मर्त्योंमे स्थित अमर्त्य, अमर्त्यं मर्त्येषु, का विचार प्रतिपादित करते हैं । इस ज्वालाके विषयमें कहा गया है कि यह परम या प्रथम शक्ति है । भगवन्मुखी संकल्प अन्य सभी भगवन्मुखी शक्तियोंका नेतृत्व करता है; उसकी उपस्थिति सत्य और अमरत्वकी ओर गतिका आरम्भ है और वह यात्राका ३६० नायक भी है । गुह्य साधनाके संचालनमें वह महत्तम शक्ति है-यजिष्ठ है, यज्ञ करनेके लिए सर्वाधिक शक्तिशाली है । मनुष्यका यज्ञ एक तीर्थ- यात्रा है और दिव्य संकल्प-शक्ति उसकी नेत्री है, अतएव प्रत्येक यज्ञ-कार्यमें हमें इसीकी उपासना या प्रार्थना करनी चाहिए अथवा इसीकी उपस्थितिकी कामना करनी चाहिए ।
ऋचाकी दूसरी पंक्ति मनुष्योंमें इस ज्वालाके प्रथम अन्वेषण या जन्मका वर्णन हमारे सामने प्रस्तुत करती है । क्योंकि आत्मा मनुष्यमें वहाँ हमारी सत्ताकी अन्तर्गुहामें गुप्त रूपसे विद्यमान है, गुहा हितम्, जैसा कि वेदों और उपनिषदोंमें कहा गया है; और उसकी संकल्पशक्ति आध्यात्मिक संकल्पशक्ति है जो वहाँ आत्मामें निगूढ़ है, निश्चय ही वह हमारी समस्त बाह्य सत्ता और क्रियामें विद्यमान है, क्योंकि समस्त सत्ता और क्रिया आत्मा ही है, किन्तु फिर भी उसकी वास्तविक प्रकृति, उसकी सहजात क्रिया छूपी हुई है, वह यहाँ परिवर्तित रूपमें ही विद्यमान है, भौतिक जीवनमें वह अपने आध्या-त्मिक-शक्तिके सच्चे स्वरूपमें प्रकट नहीं है । यह वैदिक चिंतनका एक आधारभूत विचारहै; और यदि हम इसे अच्छी तरह मनमें रखें तो हम वेदकी अनूठी रूपकमालाको हृदयंगम कर सकेंगे । पृथ्वी भौतिक सत्ताका प्रतीक है; भौतिक सत्ता, भौतिक आनन्द और कार्य इत्यादि 'पृथ्वी'के ही प्ररोह या उपज है; इसलिए उनका प्रतीक है वन, वृक्ष, पौधे, सब प्रकारकी ओषधि-वनस्पतियां, वन, वनस्पति, ओषधि । अग्नि वृक्षों और पौधोंमें छुपी हुई हैं, वह पृ थ्वीपर उगनेवाले प्रत्येक पदार्थमें, वनेषु, छुपा हुआ ताप और आग है । भौतिक जीवनमें हम जिस किसी भी पदार्थमें आनन्द लेते हैं वह आत्माकी गुप्त-ज्वालाकी उपस्थितिके बिना अस्तित्वमें नहीं आ सकता था या 'पुरोहित' ( सम्मुख स्थापित) नहीं हो सकता था । अरणियोंको मथकरके, अरणि नामक सुदाह्य काष्ठके दो टुकड़ोंको परस्पर रगड़कर आगको प्रज्वलित करना अग्निको अपने रूपमें, रूपे, प्रदीप्त करनेका एक प्रकार है, पर इसीको एक और जगह अगिरस् ऋषियोंका कार्य बताया गया है । यहाँ अप्तवान और भृगुओंको इस प्रकार अग्निके प्रदीप्त करनेवाले कहा गया है पर विधिका कोई निर्देश नहीं किया गया । केवल इतना ही कहा गया है कि उन्होंने इसे इस प्रकार प्रदीप्त कर दिया कि वह वनोंमें चित्र-विचित्र ज्योतिके सौन्दर्यके साथ, एक व्यापक उपस्थितिके रूपमें प्रज्वलित हो उठा, वनेषु चित्रं विभ्वम् । गूढ़ प्रतीकवादके अनुसार अवश्य ही इसका अर्थ होना चाहिए-मनुष्यके भौतिक जीवनमें दिव्य संकल्प और ज्ञानकी ज्वालाकी समृद्ध और नानाविध अभिव्यक्ति, जो उसके जीवनकी सब उपजों ( प्ररोहों) ३६१ पर, उसके समस्त अस्तित्व, कार्य औरं सुख-भोग पर अधिकार करले, उसे अपना भोज्य-अन्नम्-बना ले और उसका भक्षण कर उसे आध्यात्मिक जीवनकी सामग्रीमें बदल दे । किन्तु मनुष्यके स्थूल भौतिक जीवनमें आत्माकी इस अभिव्यक्तिको भृगुओंने प्रत्येक मानव प्राणीके लिए, विशे-विशे, सुलभ बनाया था--हमें यह अनुमान करना होगा कि ऐसा उन्होंने यज्ञकी विधिके द्वारा ही किया था । इस अग्निको, दिव्य संकल्पशक्तिकी इस सर्वजनीन ज्वालाको उन्होंने यज्ञका होता बनाया था ।
अब प्रश्न यह रह जाता है कि ये भृगु कौन हैं--जिनमेंसे, हम कल्पना कर सकते हैं कि, अप्नवान कमसे-कम इस कार्यमें अग्रणी या प्रमुख है ? क्या यह बात केवल ऐतिहासिक परम्पराको सुरक्षित रखनेके लिए कही गई है कि भृगु अगिरस् ऋषियोंकी तरह गूढ़ वैदिक ज्ञान और साधनाके संस्थापक थे ? पर यह कल्पना अपने-आपमें संभव होती हुई भी चौथे मन्त्रमें आए एक विशेषण 'भृगवाणम्'से खण्डित हों जाती है जो स्पष्टत: ही इस पहली ऋचाकी ओर संकेत करता है । सायण वहाँ इसका अर्थ करते हैं ''भृगुकी भांति कार्य करते हुए'' और भृगुकी भांति कार्य करनेका अर्थ है चमकना । हम यहाँ इस महत्त्वपूर्ण तथ्यको उभरते देखते हैं कि परम्परागत ऋषियों और उनके परिवारोंमेंसे कम-से-कम कुछ एक अपने स्वरूपमें प्रतीकात्मक हैं । यह तथ्य यहाँ कर्मकाण्डीय व्याख्याकारने भी एक तर्कसंगत व्याव-हारिक तथ्यके प्रति अपनी आसक्तिके होते हुए भी स्वीकार कर लिया है । जिस प्रकार अगिरस् ऋषि वेदमें अत्यन्त स्पष्ट रूपसे अग्निकी सात प्रभाएं हैं, सप्त धामानि-सायण कहते हैं कि वे आगके दंहकते अंगारे हैं, पर यह तो निरा व्युत्पत्ति-कौशल है,--उनके 'सप्त-प्रभा-रूप' होनेके संकेत वेदमें सर्वत्र पाए जाते हैं, पर दसवें मण्डलमें यह बात बिल्कुल स्पष्ट कर दी गई है, (जिस प्रकार वे सप्त-प्रभा-रूप हैं) ठीक इसी प्रकार भृगु (धात्वर्थ- भृज् प्रज्वलित करना) वेदमें स्पष्टतः ही ज्ञानके अधिपति सूर्यकी प्रज्वलित शक्तियाँ हैं । तो फिर प्रस्तुत मन्त्रमें प्रतिपादित सारे-का-सारा विचार निश्चयोत्पादक स्पष्टताके साथ प्रकट हो जाता है । सत्योद्धासक ज्ञानकी शक्तियाँ ही, द्रष्ट्ट-प्रज्ञाकी शक्तियाँ ही, जिनके प्रतीकरूप प्रतिनिधि हैं भृगु, आध्यात्मिक संकल्पशक्तिकी यह महान् उपलब्धि या आविष्कार करती हैं और इसे प्रत्येक मानव प्राणीके लिए सुलभ बना देती हैं । अप्नवानका अर्थ है वह जो कर्म करता है या वह जो उपलब्ध एवं आयत्त करता है । द्रष्ट्ट-प्रज्ञा ही मापती है और सत्य-दर्शनके प्रकाशमें उपलब्ध करती है, उस सत्य-दर्शनके परिणाम-स्वरूप ही भृगुओंको (आध्यात्मिक संकल्पशक्ति, ३६२ अग्नि की) उपलब्धि होती है । यहाँ इस ऋचाका अर्थ पूर्ण हो जाता है ।
इसपर तुरन्त ही यह कहा जायगा कि यह भावराशि इतनी अपरि-मित है कि इसे इस अकेली ऋचामें नहीं पढ़ा जा सकता और कि यहाँ ऐसे किसी अर्थका कोई प्रत्यक्ष संकेत-सूत्र ही नहीं है । नि:सन्देह यहाँ कोई प्रत्यक्ष सूत्र नहीं है, हैं केवल प्रच्छन्न संकेत जिन्हें लांघ जाना और दृष्टिमें न लाना आसान है । गुह्यवादियोंका अभिमत भी यही था कि साधारण संसारी लोग--अदीक्षित पंडित भी जिनसे बाहर नहीं हैं,--इनके ऊपर-ऊपरसे गुजर जाएं और इनकी उपेक्षा कर दें । मैंने ये अर्थ शेष वेदके संकेतोंके आधार पर ला बिठाए हैं । परन्तु स्वयं इस सूक्तमें जहाँ तक इस पहली ऋचाका सम्बन्ध है यह सहज ही एक शुद्ध कर्मकाण्डीय ऋचा हो सकती है, पर वह केवल तभी यदि इसे अकेले लिया जाय । ज्यों ही हम इससे आगे चलते हैं, हम स्पष्ट मनोवैज्ञानिक निर्देशोंके अम्बारमें पूरी तरहसे जा उतरते हैं । यह बात बहुत शीघ्र, यहाँ तक कि दूसरी ऋचामे ही, प्रत्यक्ष होने लगेगी ।
ऋचा 2
अग्ने कदा त आनुषग् भुवद्देवस्य चेतनम् । अधा हि त्वा जगृभ्रिरे मर्तासो विक्ष्वीडयम् ।।2।।
अग्ने हे अग्नि! कदा कब ते देवस्य चेतनम् तुझ देवका ज्ञान (या चैतन्य) के प्रति जागरण आनुषग् भुवत् सतत स्थायी होगा (अपनी धारामें अविच्छिन्न होगा) । अधा हि क्योंकि तभी (या निःसन्देह अब) मर्तास: मर्त्य मनुष्य त्वा जगृभ्रिरे तुझे अधिकारमें कर लेते हैं (ग्रहण और धारण कर लेते हैं) जो तू विक्षु ईडचम् (मानव) प्राणियोंमें (या प्रजाओंमें) पूजनीय है ।
आलोचनात्मक टिप्पणियां
देवस्य-सायण 'देव' शब्दको कभी तो देवताके अर्थमें लेते हैं और कभी केवल 'दीप्यमान' इस विशेषणके पर्यायके रूपमें । देवताओंको देवा: इसलिए कहा जाता है कि वे प्रकाशमान सत्ताएँ है, प्रकाशके पुत्र हैं । और यह भलीभांति संभव है कि यह शब्द ऋषियोंको सदा इस विचारका स्मरण कराता रहा हो पर मैं नहीं समझता कि देव वेदम कहीं भी एक कोरा रंगरूप-रहित विशेषण है; सभी स्थलोंमें ''देव'' या ''दिव्य'' यह अर्थ सर्व- श्रेष्ठ भावार्थ प्रदान करता है और इसे. किसी अन्य अर्थमें लेनेके लिए मैं कोई उचित कारण नहीं देखता । ३६३
चेतनम्--सायण इसका अर्थ करते हैं तेज: ( तेज), किन्तु 'चित्' धातुका अर्थ 'चमकना' नहीं है, इसका अर्थ सदा 'सचेतन होना', 'सज्ञान होना' या 'जानना' होता है, चेतति, चेतयति-जानता है, जनवाता है, चेतस्-हृदय, मन, ज्ञान, चैतन्यम्, चेतना-चेतनता! चैतन्यशक्ति, चित्तम्-हृदय, चेतना, मन । अलंकार या प्रतीकका आश्रय लिए बिना इसे यहाँ प्रकाशके अर्थमें लेना एक स्पष्ट, सीधे मनोवैज्ञानिक संकेतको, बिना किसी औचित्यके, जानबूझ- कर दृष्टिसे ओझल करना है ।
अधा, अ-धा--इस या उस प्रकारसे, इस प्रकार, पर साथ ही इसका अर्थ होता है 'तब या अब' । सायण इसका संबन्ध ' भुवत् 'के साथ जोड़कर इसका अर्थ करते है 'इसलिए' ( होना चाहिए) । ऐसा करते हुए वे 'हि' के अपने अभिमत अर्थकी तैयारी करते हैं । वे कहते हैं,. हि = क्योंकि, इस कारण । इस प्रकार, 'ते चेतनम् आनुषग् भुवत्, अधा हि'का अर्थ सायण यों करते हैं : -तेरा प्रकाश सतत क्यों होना चाहिए ? इसलिए क्योंकि- अधा हि... ( यह एक बहुत ही जोर-जबरदस्तीसे की हुई अर्थ-योजना है जो सर्वथा अस्वाभाविक है और भावकी शृंखला, गतिधारा तथा उसके सीधे-सादे अनुक्रमके विरुद्ध है ।
जगृभ्रिरे--यह एक वैदिक रूप है । इसे वैयाकरण 'ग्रह् .-पकड़ना ' इस धातुसे, 'ह्' के 'भू' में परिवर्तनके द्वारा, बना हुआ मानते हैं, बहुत संभवत: यह एक पुराने धातु 'ग्रभ्' से बना है और एक अनोखा, अप्रचलित, आर्ष रूप है । यदि इसका भावार्थ है, '' क्योंकि उसे वे ग्रहण कर लेते हैं'', और यहाँ भूतकाल 'पूरे हो चुके कार्य'का अर्थ देता है तो हम यों कहेंगे, '' ग्रहण ( अधिकृत) कर चुके होंगे'', अर्थात्, '' जब तू सतत जानता है ( सचेतन होता है)'' अथवा 'अधा'को 'अब'के अर्थम लें, '' निःसन्देह अब ही उन्होंने ग्रहण किया है पर अभी सतत चैतन्य ( आनुषक् चेतनम्) प्राप्त नहीं किया ।'' पर इससे वैसा अच्छा अर्थ नहीं बनता और साथ ही इसमें भद्दे विपर्यय और अध्याहारके दोष भी आ घुसते हैं ।
अनुवाद
'' हे अग्निज्वाला, ज्ञानके प्रति तेरा जागरण कब एक अविच्छिन्न शृंखला-रूप होगा ? क्योंकि तभी मनुष्य तुझे इस रूपमें ग्रहण ( अधिकृत) कर लेते हैं कि तू प्राणियोंमें उपास्य देव है" ।
यहाँ हम 'चेतनम्' शब्दमें पहला स्पष्ट एवं सीधा मनोवैज्ञानिक संकेत पाते हैं । पर अग्निके इस सतत सज्ञान होने या ज्ञानके प्रति जागरित होने- ३६४ का अर्थ क्या है ? पहले हम मनोवैज्ञानिक संकेतसे पिण्ड छुड़ानेका यत्न करें, ऐसा समझें कि चेतनम्=चेतना और फिर अग्निकी चेतनाको उसके जलनेका एक काव्यमय रूपकमाल समझें । किन्तु अगली ऋचाओंमे हम 'आनुषक् चेतनम्' इस पदावलिकी जो आवृत्ति पाते हैं वह इस अर्थके विरोधमें जाती है । ५वीं ऋचामें इसकी आवृत्ति यों हुई है: 'आनुषक् चिकित्वांसम्' जिसमें 'चिकित्वांसम्' निश्चय ही 'सचेतन ज्ञान'का द्योतक है न कि केवल 'जलने'का । तीसरी ऋचामें भी 'चेतनम्'का विचार फिरसे लिया गया है और मन्त्रके शुरूके दो शब्दों 'ऋतावानं विचेतसम्'में स्वयं 'चेतनम्' शब्दको भी प्रतिध्वनित किया गया है । 'ऋतावानं विचेतसम्'का अर्थ है 'सत्यसे युक्त, ज्ञान (प्रज्ञा) में पूर्ण' और ये दोनों अग्निदेवके लिए विशेषणके रूपमें प्रयुक्त हुए हैं । इस बलपूर्ण संकेतसे आंखें मूंद लेना और 'चेतनम्'को निरे जलने, 'ज्वलनम्'के अर्थमें लेना केवल एक पैंतरेबाजी होगी । तो क्या इसका अर्थ स्थूल यज्ञकी ज्वालाका सतत प्रज्वलन है, जो इस विचारको साथ लिए हुए है कि ज्वाला अग्निदेवका शरीर है और चेतन देवकी उपस्थितिको सूचित करती है । तो फिर अग्निका ज्ञान या प्रज्ञा किस बातमें निहित है ? यह कहा जा सकता है कि वह केवल होता और कवि: (द्रष्टा) के रूपमें ही ज्ञानवान् है जो स्वर्गका मार्ग जानता है (मन्त्र 8) । पर तब 'ऋतावानं विचेतसम्'का क्या होगा ? वह निश्चय ही किसी महत्तर शान, किसी महान् सत्यकी ओर संकेत करता हैं जिसे अग्नि धारण करता है । क्या यह सब केवल भौतिक अग्निके देवकी ओर ही निर्देश करता है या एक अन्तरग्निके ज्ञान एवं प्रज्ञाकी ओर, उस अन्तरग्निके जो मानवमें और जगत्में स्थित भागवत शक्ति या भगवत्संकल्पशक्तिकी अग्नि है, ज्योतिर्मय एकमेवकी, देवस्य, अतिथि और द्रष्टा, अतिथि:, कवि: की । मैं इसे, इस अर्थमें लेता हूँ-ऋषि इस आन्तर अग्निका आवाहन कर कहता है, ''कब तू मेरे यज्ञकी वेदीपर मुझमें निरन्तर प्रदीप्त होगा; कब तू प्रज्ञाके प्रत्यक्ष उन्मेषोंको, उनकी समस्त निर्बाध शृंखला, सम्बन्ध-परम्परा, व्यवस्था और संपूर्णता सहित प्रदान करनेके लिए ज्ञानकी एक सतत-स्थायी शक्ति बन जायगा, सदा-सर्वदा और सम्पूर्णतया इस प्रज्ञाके ही वचनोंको, काव्यानि, बोला करेंगा'' ? यदि प्रस्तुत मन्त्र अन्तर्ज्वालासे किंचित् भी संबन्ध रखता है तो इसका अर्थ अवश्यमेव यही होना चाहिए । हमें स्मरण रखना होगा कि वैदिक प्रतीकवादके अनुसार, सारे प्रतीकात्मक वर्षभर-अंगिरसोंके यज्ञके नौ या दस महीनों तक-सतत यज्ञ करके ही सूर्यको, सत्य एवं प्रज्ञाके स्वामीको अन्धकारकी गुफासे प्राप्त किया गया था । बारंबार दोहराया गया यह एक ही यज्ञ, ३६५ प्रत्यक्ष प्रकट होती हुई अन्तर्ज्वालाके इस सातत्यकी तैयारीमात्र है । केवल तभी मनुष्य पुनः-पुन: दबावके द्वारा अग्निको समय-समय पर न केवल जगाते ही हैं, अपितु संकल्प और ज्ञानकी इस अन्तर्ज्वालाको, इस प्रत्यक्ष उपस्थित देवको प्राप्त भी कर लेते हैं तथा अपने अन्दर सतत धारण भी करते हैं, जिसे हम तब सभी सचेतन विचारशील प्राणियोंमें देखते और पूजते हैं । अथवा हम अन्तिम दो चरणोंको इस अर्थमें ले सकते हैं ''अब ही निःसन्देह वे इसे ग्रहण कर लेते हैं'' इत्यादि । और तब हमें इसे इससे विरुद्ध अर्थमें भी लेना पड़ेगा, अर्थात् इस अर्थमें कि इस समय मनुष्योंके पास यह सतत ज्वाला नहीं है, पर केवल यज्ञके प्रयासमें यज्ञकी वास्तविक अवधि तकके लिए वे उसे अपने अधिकारमें कर लेते हैं । यह अर्थ संभव हैं,. पर यह उतना स्वाभाविक अर्थ नहीं है जितना मेरा दिया हुआ अर्थ; वास्तविक शब्दोंसे यह कम सरल और कम सीधे रूपमें निकलता है । अगली दो ऋचाओं ( 3-4) में ही अग्निके आनुषक् चेतनम् ( सतत चैतन्य) से पहलेकी वर्तमान क्रियाका वर्णन किया गया है, जब कि पांचवीं ऋचामें ऋषि ज्ञानकी महत्तर सतत ज्वालाके विचारकी ओर फिरसे लौटता है, इस मन्त्रके 'आनुषक् चिकित्वांसम्'में दूसरे मन्त्रके आनुषक् चेतनम्'को और अधिक अर्थगर्भित रूपमें दुहराता है । यह मुझे सूक्तकी विचारधाराका स्पष्ट स्वाभाविक क्रम प्रतीत होता है ।
ऋचा ३
ऋतावानं विचेतसं पश्यन्तो द्यामिव स्तृभि: । विश्वेषामध्वराणां हस्कर्तारं दमेदमे ।।3।।
पश्यन्त वे उसे देखते हैं जो ऋतावानम् ( ऋतवन्तम्) सत्यसे संपन्न है, विचेतसम् पूर्ण ज्ञानी है, द्यामिव स्तृभि: नक्षत्रमण्डित आकाशकी तरह दमे..दमे (गृहे-गृहे) घर-धरमें विश्वेषाम् अध्वराणाम् समस्त (यात्रा) -यज्ञोंका हस्कर्तारम् प्रकाशक है ।
आलोचनात्मक टिप्पणियां
ऋतावानम्, ऋत+वन्= ऋतावान्
वैदिक प्रत्यय 'वत्'का वही अर्थ है जो लौकिक 'वन्' प्रत्ययका, ऋतावा= न् ऋतवान्, 'ऋत्' शब्द 'ऋ' 'गति करना' धातुसे बना हैं । इसी कारण इसका एक अर्थ है 'जल' । 'सत्य' यह अर्थ इस प्रकार निकला हो सकता है, ॠत = जो सीखा या जाना जाता है, शाब्दिक रूपमें ऋत=वह वस्तु ३६६ जिसकी खोजमें हम जाते हैं और जिसे पा लेते हैं अथवा जिसकी हम छानबीन करते हैं और इस प्रकार जिसे सीख लेते हैं (तुलनीय, ऋषि), पर 'सत्य' यह अर्थ 'ऋजुता'के विचारसे भीं निकल सकता हे, लैटिन rectum, (रैक्टुम्), ऋजु । कैसे इसका अर्थ यज्ञ हो जाता है यह बात इतनी स्पष्ट नहीं है, संभवत: 'रीति', अनुष्ठान, नियम (विधि) या 'अनुसृत दिशा'के विचारसे, लैटिन regula (रैगुला, rule, नियम) के विचारसे यह अर्थ आया है । या फिर इसका अर्थ कर्म और इस प्रकार यज्ञिय कर्म भी हो जाता है; गत्यर्थक धातुओंका अर्थ प्रायः 'क्रिया करना' भीं होता है (तुल. चरितम्, वृत्तम्) । सायण कहते हैं कि 'ऋतावा'का अर्थ प्रायः 'सत्यसे युक्त या यज्ञसे युक्त' हो सकता है । पर यहाँ वे इसका अर्थ करते हैं सच्चा, .कपटसे रहित, अमायिनम् । एक और जगह वे यह मानते हैं कि 'सत्य' शब्द अग्निके विशेषणके रूपमें प्रयुक्त हुआ है, अग्नि सत्य-फल है, यज्ञका सच्चा फल देता है । अधिकतर तो वे ऋतका अर्थ यज्ञ करते हैं । परन्तु यहाँ यह पूर्णतया स्पष्ट है कि 'ऋतावानम्'का अर्थ 'सत्यका धारक' ही होना चाहिए, अग्निके सत्यको हम चाहे किसी भी अर्थमें क्यों न लें ।
विचेतसम् । सायण :--विशिष्टज्ञानम् अर्थात् विशिष्ट या महान् ज्ञान रखनेवालेको; वेदमें प्रचेता: और विचेता: मे अत्यधिक भेद किया गया है जैसे कि उपनिषदोंमें और परवर्ती साहित्यमें प्रज्ञान और विज्ञानमें किया गया है; चित्ति या चेत: ज्ञानका वाचक है, इनमेंसे पिछला शब्द लौकिक है, वैदिक नहीं । 'प्र' किसी विषयकी ओर अभिमुख ज्ञानका भाव प्रस्तुत करता है, प्रचेता: = बुद्धियुक्त, सामान्य अर्थमें बुद्धिमान् । (इस प्रकार सायण इसका अर्थ करते हैं प्रकृष्टज्ञान:-प्रकृष्ट ज्ञानवाला और वे 'प्रचेता:', 'विचेता:' शब्दोंमें कोई भेद नहीं करते) । 'वि'का अर्थ है विस्तृत रूपसे, व्यापक रूपसे या फिर उच्च मात्रामें; तब विचेता: का अर्थ हुआ अविकल या महान् या परिपूर्ण ज्ञान अर्थात् समग्रका और अवयवोंका ज्ञान रखनेवाला ।
हस्कर्तारम् । 'हस' चमकना, चमकता हुआ, (जिससे 'हँसना' यह अर्थ निकलता है) और 'कृ'का अर्थ है बनाना । सायण कहते हैं हस्कर्तारम्-- प्रकाशकम्, यज्ञोंको प्रकाशमान करनेवालेको ।
दमे । इस वैदिक शब्दका (ग्रीक domos, डोमोस्, लैटिन domus, डोमुस्) अर्थ सदा 'घर' होता है; वेदमें यह 'वशीकरण, नियन्त्रण' इत्यादि परवर्ती लौकिक अर्थमें प्रयुक्त नहीं होता । ३६७ अनुवाद
''वे सत्यके स्वामी, पूर्णप्रज्ञावान् अग्निको नक्षत्रमण्डित द्युलोककी तरह देखते हैं; घर-धरमें समस्त यात्रा-यज्ञोंके प्रकाशकको ।''
इस ऋचामें 'विचेतसम्' शब्द स्पष्टत: ही पिछले मन्त्रके 'चेतनम्' शब्द-का ही पुन: निर्देश करता है; इसका अर्थ है पूर्ण-ज्ञानवान् और इसे यहाँ ऋतावानम्से संयुक्त कर दिया गया है जिसका अर्थ है सत्य-युक्त, सत्यसे सम्पन्न । इन विशेषणोंसे जिसका वर्णन किया गया है वह अग्निदेव ही है न कि भौतिक अग्नि । अतएव पिछले मन्त्रमें ते चेतनम् का अर्थ होना चाहिए ''ज्ञानके प्रति जगाता हुआ'' अग्नि या ''अग्निका मनुष्यको ज्ञानके प्रति जाग-रित करना'',--क्योंकि चेतयतिका अर्थ है जानने देना या जनवाना, ज्ञान कराना और इसका अर्थ 'स्थूल-भौतिक ज्वालाका जलना' नहीं हों सकता । परन्तु अग्निका यह सत्य एवं ज्ञान है क्या ? अगले मन्त्रमें फिर इसका संबन्ध यज्ञको प्रकाशमान करनेके इसके कार्यके साथ दिखाया गया है, अध्वराणां हस्कर्तारम् । यज्ञको वह जो प्रकाश देता है वह क्या है ? और इस कथन-का क्या अभिप्राय है कि वह ''नक्षत्रमण्डित द्युलोककी तरह'' दिखाई देता है ? सायण अत्यधिक पाण्डित्यपूर्ण चातुरीके साथ, पर समस्त सुरुचि और साहि-त्यिक विवेककी, अपने अनोखे ढंगसे, उपेक्षा करते हुए कहते हैं कि आगकी बिखरती हुई चिनगारियां तारोंके समान है और अतएव अग्नि द्युलोकके समान है,--यद्यपि यह कल्पना करनेका कोई कारण नहीं है कि 'स्तृभि:'से ये उल्काएं अभिप्रेत हैं । मैं किसी ऐसे कविकी कल्पना ही नहीं कर सकता जो अपने सिरमें आँखें और मस्तिष्कमें विवेक एवं अनुपात-बुद्धि रखते हुए वेदीपर जलती अग्निका इस प्रकार वर्णन करेगा । पर यदि इसका अवश्त-मेव यही अर्थ है, तो यहाँ हमारे सामने एक शुद्ध आलंकारिक वर्णन है और उसपर भी एक बहुत बुरा, अतिरंजित एवं दूषित अलंकार । तब मंत्रका जो अर्थ होगा वह बस इतना ही है कि मनुष्य इस ज्ञानवान् और सत्यमय अग्निको यज्ञिय अग्निके स्थूल रूपमें देखते हैं जो यज्ञके संपूर्ण कार्यपर अपनी ज्वालाओं द्वारा प्रकाश डालता है । तब तो दो विशेषण भी निरर्थक अलं-कार हैं; तब 'अग्निके ज्ञानवान् होने'का विचार और नक्षत्रयुक्त द्युलोकका अलंकार या यज्ञको आलोकित करना जो मन्त्रका मुख्य विचार है-इनमें बिल्कुल ही संबन्ध नहीं रहता । अन्य कवियोंकी भांति मैं एक और ही प्राक्कल्पनाके आधारपर आगे बढ्ता हूँ जो मेरी समझमें अनुचित नहीं है, वह यह कि वैदिक ऋषि वामदेवने अन्य कवियों की ही भांति अपने विचारों-में इसकी अपेक्षा किसी अधिक निकट संबन्धके साथ मन्त्र-रचनाकी । हमें ३६८ स्मरण रखना होगा कि अन्तिम मन्त्रमें उसने उस वस्तुकी कामना की है जो उसके पास नहीं है अर्थात् अग्निके सतत ज्ञानकी, और उसने कहा है कि निःसंदेह तभी मनुष्य उसे धारण तथा अधिकृत करते हैं । पर उससे पहले वे उसे किस रूपमें सतत देखते हैं, यद्यपि वे उसे देख तभी सकते हैं जब भृगु प्रत्येक मानव प्राणीके उपयोगके लिए उसे पा चुकते हैं ? वे उसे सत्यके अधिपति, पूर्णज्ञान-संपन्नके रूपमें देखते हैं, पर जैसा कि हमें मानना ही होगा, अभी वे उसके संपूर्ण सत्य या परिपूर्ण ज्ञानके सहित उसे अधिकृत नहीं किए होते; क्योंकि वह नक्षत्रमण्डित आकाश एवं उनके यज्ञोंके प्रकाशकके रूपमें ही दिखाई देता हैं । नक्षत्रमण्डित आकाश सूर्यके प्रकाशसे रहित, रात्रिका आकाश है । अग्निका वर्णन वेदमें यों किया गया है कि वह रातमें भी चमकता है, रातको भी प्रकाश देता है, रात्रियोंमें तबतक प्रज्वलित रहता है जब तक प्रभात नहीं हों जाता,-यह प्रभात भी, इन्द्र और अंगिरसोंकी सहायता करके, वह स्वयं ही लाता है । यदि अग्निका अर्थ अन्तर्ज्वाला हो तो इस वर्णनका अर्थ प्रभावकारी, उपयुक्त और गंभीर हो जाता है । वेद मे अन्धकार या रात्रि अशानपूर्ण मनका प्रतीक है, जैसे कि दिन और उसका सौर प्रकाश आलोकित मनका । पर जब तक दिन या सतत ज्ञान नहीं हो जाता तब तक अग्निकी प्रभाएं रातके आकाशमें तारोंके समान होती हैं । जैसे पृथिवी भौतिक़ सत्ता है वैसे ही द्युलोक (आकाश) मानसिक सत्ता है । अग्निका समस्त सत्य और ज्ञान वहाँ विद्यमान है, पर वह रातके अन्धकारके कारण ही छुपा हुआ है । मनुष्य जानते हैं कि यह प्रकाश आकाशोंको व्यापे हुए वहाँ विद्यमान है किन्तु वे केवल उन तारोंको ही देखते हैं जिन्हें अग्निने इन आकाशोंमें अपनी प्रकाशप्रद अग्नियोंके रूपमें प्रदीप्त किया है ।n ३६९
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